हठ योग प्रदीपिका
इकाई प्रथम
हठयोग की परिभाषा ,
अभ्यास हेतु उपयुक्त स्थान ,
ऋतु – काल,
योगाभ्यास के लिए पथ्यापथ्य ,
साधना में साधक –बाधक तत्त्व, हठ सिद्धि के लक्षण ,हठयोग की उपादेयता,
ह.यो.प्र. में वर्णित आसनों की विधि व लाभ ,प्राणायाम की परिभाषा ,प्रकार ,
विधि व लाभ, प्राणायाम की उपयोगिता
प्रस्तावना –
“हठयोग” शब्द दो शब्दों “हठ” एवं “योग” से मिलकर
बना है , जिससे यह एक प्रकार की योग
पद्धति होना सूचित करता है ! योग विद्या भारतीय आर्ष विद्यायों में से एक
महत्वपूर्ण एवं सर्वोपयोगी विशुद्ध विज्ञान है !
जिसे वैदिक भारतीय ऋषियों ने सर्वजन के त्रिविध
दुखो की निवृति एवं सुख – शांति, समृद्धि पूर्ण जीवन के साथ – साथ परम
पुरुषार्थ (परम लक्ष्य ) मोक्ष की प्राप्ति हेतु व्यावहारिक साधनात्मक (सूत्र)
सिद्धांतो का प्रतिपादन किये ! जिसको कोई भी मनुष्य जीवन में धारण कर सभी प्रकार
के कलेशो से मुक्त हो सुख – शांति पूर्ण जीवन व जीवन लक्ष्य को सहजता से प्राप्त
कर अपने सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन को धन्य बना सकता है !
जीवन साधना के इस गूढ़ एवं व्यावहारिक योग विज्ञान
के जन सामान्य के स्थिति योग्यता एवं स्तर के भिन्नतानुसार कई प्रकार है जिनमे सभी
का परम उद्देश्य सामान ही है – समस्त दुखों की आत्यान्त्तिक निवृत्ति एवं मोक्ष(समाधि) की प्राप्ति ! जैसे – हठ योग ,
ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग , राज योग , अष्टांग योग , मंत्र योग , तंत्र योग ,कुंडलिनी
योग आदि ! ये सभी योग के विभिन्न प्रकार है !जिसमे हठ योग शारीरिक- मानसिक शुद्धि(शोद्धनम
),दृढ़ता ,स्थिरता, धीरता, लाघवता(हल्कापन ) से क्रमशः आत्म प्रत्यक्षिकरण और
निर्लिप्तता १/१० घे.स.. को अपेक्षाकृत अधिक सुगमता से प्राप्त करते हुए राज
योग की अवस्था को प्राप्त कर योग सिद्ध होता ! इस प्रकार हठ योग – राजयोग के
प्रारंभिक किन्तु आवश्यक व प्रभावशाली अभ्यास है जो योग सिद्धि में परम सहायक है !
यथा- केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते !ह.प्र-१/२ !
जैसा की नाम एवं नामी का गहरा सम्बन्ध होता है !
अर्थात वस्तु अथवा विषय , साधन आदि का उसके नाम से गहरा सम्बन्ध सुनिश्चित होता है
! उस दृष्टि से हठ योग शब्द देवनागरी लिपि के वर्णमाला से निर्मित हुआ है तथा देवनागरी लिपि के प्रत्येक अक्षर का आपना एक
विशेष अर्थ होता है ! इस अनुसार ‘हठ’ शब्द
दो अक्षर ‘ह’ और ‘ठ’ से मिलकर बना है !
जिसमे ह, और ठ का अर्थ है -
ह = सूर्य स्वर, उष्णता का प्रतीक , पिंगला नाडी , दायाँ नासिका
ठ = चन्द्र स्वर, शीतलता का प्रतीक , इडा नाडी , बायाँ नासिका !
हठ योग = सूर्य स्वर (पिगाला नाडी ) और चन्द्र
स्वर ( इडा नाडी ) में समन्वय स्थापित कर प्राण का सुषुम्ना मे संचारित होना !
सिद्ध सिद्धांत पद्धति १/६९ के अनुसार –
हकार कीर्तितः सूर्यः ठकारश्चन्द्र
उच्यते !
सूर्य चन्द्र
मसोर्योगात हठयोगो निगद्यते !! १/६९ !!
अर्थात – “हकार सूर्य स्वर और ठ कार चन्द्र स्वर है इन सूर्य और चन्द्र स्वर को प्राणायाम आदि का
विशेष अभ्यास कर प्राण की गाती सुषुम्ना वाहिनी कर लेना ही हठ योग है !”
According
to swami muktibodhananda -
“Ha” means ‘prana’ ( vital force ) and ‘tha’ means
mind (mental energy ) . Thus Hath yoga
means Union of pranic and mental energy”.
According
to her techniques of Hath yoga are –
Shatkarma , aasan , pranaayam , mudra
bandha, concentration . (source - Hath pradipika by Mukti bodhananda )
अभ्यास हेतु उपयुक्त स्थान
हठ प्रदीपिका में वर्णित हठ योग अभ्यास के लिए
उपयुक्त स्थान -
सुराज्ये धार्मिके देशे सुभिक्षे
निरुपद्रवे !
धनु: प्रमाणपर्यन्तं शिलाग्निजलवर्जिते !
एकान्ते मठिकामध्ये स्थातव्यं हठयोगिना !!
ह. प्र.१/१२ !!
अर्थात - हठ योगी को एसे एकांत स्थान में रहना चाहिए जहाँ का राज्य अनुकूल हो ,
देश धार्मिक हो , धन धन्य से परिपूर्ण हो तथा जो सभी प्रकार के उपद्रवो से रहित हो
! ऐसे स्थान पर एक छोटी सी कुटिया में रहना चाहिए , जहाँ किसी भी ओर से चार हाथ प्रमाण की दुरी तक पत्थर ,अग्नि अथवा जल न हो !
अल्पद्वारमरंध्रगर्तविवरं
नात्युच्चनीचायतं !
सम्यग्गोमयसान्द्र लिप्तममलं नि:शेषजंतूज्झितम
!!
बाह्ये मंडपवेदिकूपरुचिरं
प्राकारसंवेष्टितं !
प्रोक्तंयोगमठस्य लक्षणमिदं सिद्धै: हठाभ्यासिभिः
!! १/१३ !!
अर्थात – उस कुटी का द्वारा छोटा हो , उसमे कोई
छिद्र अथवा बिल ( चूहे , सर्प ) आदि न हो , वहां की भूमि ऊची – नीची न हो और अधिक
विस्तृत भी न हो ! गोबर के मोटे परत से अच्छी तरह लिपा हुआ हो , स्वच्छ हो , कीड़ो
आदि से रहित हो तथा बहार में मंडप , वेदी तथा अच्छा कुआं हो और साथ ही वह चारो ओर से दीवार से घिरा हो ! सिद्ध हठ
योगियों द्वारा योग मठ के ये लक्षण बताये
गए है !
एवं विधे मठे स्थित्वा सर्वचिन्ताविवर्जित:
!
गुरुपदिष्टमार्गेण योगमेव समभ्यसेत !! १/१४
!!
घेरंड संहिता में वर्णित हठयोग अभ्यास के लिए
उपयुक्त स्थान निर्णय -
दूरदेशे तथारण्ये राजाधान्यां जनान्तिके !
योगाराम्भं न कुर्वीत
क्रित्श्चेत्सिद्धिहा भवेत् ! ५/३ !
अविश्वासं दुरदेशे अरण्ये रक्शितार्जितम !
लोकारण्येप्रकाशश्च
तस्मात्त्रीणीविवर्जयेत ! ५/4 !
अर्थात – दूर देश में , अरण्य में और राजधानी में
बैठ कर योगाभ्यास नहीं करना चाहिए , अन्यथा सिद्धि में हानि हो सकती है ! क्योंकि
दूर देश में किसी का विश्वास नहीं होता , अरण्य (वन) रक्षक रहित रहता है और
राजधानी में अधिक जनसमूह रहने के कारण प्रकाश एवं कोलाहल रहता है ! इसलिए ये तीनो स्थान इसके
लिए वर्जित है !
सुदेशे धार्मिके राज्ये सुभिक्षे निरुपद्रवे
!
कुटी तत्र विनिर्माय प्राचिरै: परिवेष्टिताम !५/५!
वापी कूपतड़ाग च प्राचीर मध्यवर्ति च !
नात्युच्चं नातिनीचं कुटीरं कीटवर्जितम! ५/६!
सयग्गोमय लिप्तं च्
कुटीरं तत्रनिर्मितम !
एवं स्थानेषु गुप्तेषु प्राणायामं समभ्यसेत
! ५/७ !!
अर्थात – “सुन्दर धर्मशील देश जहाँ खाद्य पदार्थ
शुलभ हो और देश उपद्रव रहित भी हो , वहां
कुटी बनाकर उसके चारो ओर प्राचीर बना ले ! वहां कुआं या जालाश्य हो , उस कुटी की
भूमि न बहुत ऊँची हो , न बहुत नीची , गोबर से लिपि हुई ,कीट आदि से रहित और
एकांत स्थान में हो ! वहां प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए !”
शिव संहिता – ३/२२,३९,४०
“योगी को स्वच्छ, सुन्दर कुटी में आसन ( चैल , अजिन , कुश ) आदि पर
बैठकर पद्मासन की स्थिति में प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए !”
वशिष्ठ संहिता २/५६,५८ –
“ फल ,मूल,जल आदि से भरे तपोवन में जाकर वहां मनोरम तथा पवित्र स्थान
में , नदी किनारे अथवा देवालय में सभी प्रकार से सुरक्षित सुन्दर मठ बनाकर ,
त्रिकाल स्नान करते हुए पवित्र होकर , स्थिर चित्त हो !”
आजकल आधुनिक समय में अभ्यास हेतु उपयुक्त स्थान के चयन हेतु ध्यान
रखने योग्य बाते –
Ø साफ-सुथरा और शांत स्थान !
Ø प्राकृतिक वातावरण और प्रदुषण रहित (कम) !
Ø खाने पीने की वस्तुओं की सुलभता !
Ø कोलाहल और उपद्रव से रहित (परे)!
Ø यातायात ( आने- जाने ) की सुविधा !
Ø सुरक्षा व्यवस्था का उचित प्रबंध !
Ø ऋतु – काल निर्णय
घेरंड संहिता – ५/८- १५ में योगारम्भ और अभ्यास के लिए उत्तम ऋतु
चर्या का वर्णन मिलता है-
हेमन्ते शिशिरे ग्रीष्मे वर्षायाँ च ऋतौ तथा !
योगारम्भं न कुर्वीत
कृते योगो हि रोगदः !! ५/८!!
वसन्ते शरदि
प्रोक्तं योगारम्भं समाचरेत् !
तदा योगी
भवेत्सिद्धो रोगान्मुक्तो भवेद्ध्रुवम् !!५/९!!
अर्थात - हेमंत, शिशिर,
ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में योगाभ्यास शुरू नहीं करना चाहिए ! इनमे करने से यह
अभ्यास रोग प्रद्याक हो जाता है ! वसंत और शरद ऋतु में अभ्यास करना उचित है ! इनमे
करने से सिद्धि मिलातियो है और रोगों से निवृति होती है ! यह सत्य है !
चैत्र से फाल्गुन तक वर्ष में बारह महीने होते है
, इनमे दो- दो महीने की एक ऋतु और चार – चार महीने की
भी अनुभूति होती है ! चैत्र – वैशाख में बसंत ऋतु ऋतु ज्येष्ठ आसाढ़ में ग्रीष्म ,
श्रावण – भाद्रपद में वर्षा ऋतु , आश्विन- कार्तिक में शरद, मार्गशीर्ष – पौष में
हेमंत और माघ – फाल्गुन में शिशिर ऋतु होती है ! माघ से वैशाख पर्यंत वसंत का
अनुभव होता है , चैत्र से अशाध तक ग्रीष्म का , आषाढ़ आश्विन के अंत तक वर्षा का ,
भाद्रपद से मार्गशीर्ष तक शरद का तथा कार्तिक से माघ तक सहित का अनुभव होता है !
वसंत और शरद ऋतु में योगारंभ करने से सिद्धि का होना कहा गया है !
योगाभ्यास के लिए पथ्यापथ्य
हठ प्रदीपिका (१/५८) में मिताहार का वर्णन –
सुस्निद्धमधुराहाराश्चतिर्थांशविवर्जित:!
भुज्यते शिवसंप्रित्ये मिताहार: स उच्यते !!१/५८ !!
अर्थात – सुस्निगद्ध तथा मधुर भोजन , भगवान् को अर्पित कर , अपने
पूर्ण आहार का चतुर्थांश कम खाया जाय उसे मिताहार कहते है !
ह.प्र.-१/५९-६० में अपथ्यकर आहार का वर्णन है -
कटु , अम्ल ,तीखा ,नमकीन ,गरम, हरी शाक ,खट्टी भाजी , तेल,मत्स्यान , सरसों, मद्य, मछली , बकरे
आदि का मांस , दही ,छान्छ ,कुलथी, कोल(बैर),खाल्ली,हिंग तथा लहसुन आदि वस्तुए योग
साधको के लिए अपथ्य कारक कहे गए है !
फिर से गर्म किया गया ,रुखा ,अधिक नमक या खटाई वाला ,
अपथ्यकारक तथा उत्कट अर्थात वर्जित शाक युक्त भोजन अहितकर है ! अत: इन्हें नहीं
खाना चाहिए !
१/६१ – योगारंभ के प्रारंभ में ही अग्नि का
सेवन,स्त्री का संग तथा लम्बी यात्रा इन्हें छोड़ देना चाहिए !
पथ्यकारक भोजन – १/६२ ह.प्र.
उत्तम साधको के लिए पथ्यकारक भोजन है – गेहूं ,
चावल , जौ,साठी चावल जैसे सुपाच्य अन्न ,दूध,घी,खांड ,मक्खन , मिसरी,मधु, सुंठ ,परवल
जैसे फल आदि , पांच प्रकार के शाक ( जीवन्ति, बथुआ, चौलाई, मेघनाद तथा पुनर्नवा )
, मुंग आदि तथा वर्षा का जल !
पुष्टं सुमधुरं स्निग्धं गव्यं धातुप्रपोषणम!
मनोभिलषितं योग्यं योगी भोजनमाचरेत !!१/६३ !
योगाभ्यासी को पुष्टिकारक ,सुमधुर, स्निग्ध , गाय
के दूध की बनी वास्तु धातु को पुष्ट करने वाला , मनोनुकुल तथा विहित भोजन करना
चाहिए !
घेरंड संहिता ५/१६-२२ में
मिताहार का वर्णन –
मिताहारं विना यस्तु योगारम्भं तु कारयेत !
नानारोगो भवेत्तस्यकिचितद्योगो न सिध्यति !!५/१६!!
अर्थात - जो साधक योगारम्भ करने के काल मी मिताहार नहीं करता , उसके
शारीर में अनेकज रोग उत्त्पन्न हो जाते है ! और उसको योग की सिद्धि नहीं होती !
साधक को चावल , जौ, गेंहू का आटा ,मुंग ,उड़द , चना आदि का भूसी रहित ,
स्वच्छ करके भूजन करना चाहिए ! परवल,कटहल , ओल ,मान्कंद, कंकोल , करेला, कुंदरू ,अरवी,
ककड़ी ,केला, गुलर और चौलाई आदि का शक भक्षण करे ! कच्चे या पक्के केले के गुच्छे
का दंड और उसका मूल, बैंगन, ऋद्धि , कच्चा शाक, ऋतु का शाक , परवल के पत्ते , बथुआ
और हुरहुर का शक खा सकते है !
(५/२१- २२ ) “उसे स्वच्छ
सुमधुर ,स्निग्ध और सुरस द्रव्य से संतोष
पूर्वक आधा पेट भरना और आधा खाली रखना रखना चाहिए ! विद्वानों ने इसे मिताहार कहा
है ! पेट के आधे भाग को अन्न से तीसरे भाग को जल से भरना और चौथे भाग को वायु
संचालनार्थ खाली रखना चाहिए !”
निषिद्ध आहार – ५/२३ -३१ घे. सं.
कड़वा , अम्ल , लवण और तिक्त ये चार रस वाली
वस्तुए , भुने हुए पदार्थ , दही ,तक्र ,शाक,उत्कट, मद्य ,ताल और कटहल का त्याग करे
! कुलथी , मसूर, प्याज , कुम्हाडा, शाक- दंड , गोया कैथ , ककोडा , ढाक ,कदम्ब,
जम्बिरी , नीबू, कुंदरू ,बडहड , लहसुन,
कमरख, पियार, हिंग,सेम और बड़ा आदि का भक्षण योगारम्भ में निषिद्ध है ! मार्ग गमन ,
स्त्री- गमन तथा अग्नि सेवन भी योगी के
लिए उचित नहीं ! मक्खन ,घृत, दूध ,गुड, शक्कर, दाल, आंवला ,अम्ल रस आदि से बचे !
पांच प्रकार के कैले , नारियल , अनार, सौंफ आदि वस्तुओं का सेवन भी न करे !
शिव संहिता – ३/४३ में कहा गया है -
साधना अभ्यास के आरम्भ में दूध और घी (
युक्त) भोजन करना चाहिए !बबाद में अभ्यास के स्थिर हो जाने पर उस प्रकार के नियम
पालन आवश्यक नहीं है !
·
शि. सं. ३/४४- “योगाभ्यासी को थोडा- थोडा करके
अनेक बार भोजन करना चाहिए !”
भगवतगीता की 17 वे अध्याय के ८,९,१० श्लोक क्रमश: -
सात्विक ,राजस और तामस आहार के लक्षण बाताये गए है –
१.सात्विक आहार – १७/८
आयु: सत्वबलारोग्यसुखाप्रितिविवार्धना:!
रसया:स्निग्धा:
स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया:!
अर्थात – आयु , बुद्धि , बल , आरोग्य ,
सुख और प्रीति को बढाने वाले रसयुक्त स्निग्ध ( चिकने ) स्थिर रहने वाले तथा
स्वाभाव से ही मान को प्रिय एसे आहार सात्विक पुरुस को प्रिये होते है !
२.राजस आहार के लक्षण – 17/9
अर्थात – कडुवे , खट्टे ,लवण युक्त , बहुत
गर्म , तीखे रूखे ,दाह कारक और दुःख चिंता तथा रोगोप को उत्त्पन्न करने वाले आहार
राजस पुरुष को प्रिये है !
३.तामस आहार के लक्षण – 17/10
अर्थात – जो भोजन अधपका,रसरहित, दुर्गन्ध
युक्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वो भोजन तामस पुरुष को प्रिये
होता है !
साधना में साधक– बाधक तत्त्व – हठ
प्रदीपिका
बाधक- १/१५
“अत्याहार: प्रयासश्चप्रजल्पो नियमाग्रह:!
जनसंगश्च लौल्यं च षड्भिर्योगो विनश्यति !!”
|
साधक- १/१६
“उत्साहात
साह्साद्धैर्यात्तत्त्वज्ञानाच्च निश्चयात !
जनसंगपरित्यागात
षड्भिर्योग: प्रसिद्ध्यति !!”
|
१.अधिक भोजन –
·
ग्रहण किये गए अधिक भोजन को पचाने के लिए अधिक
उर्जा और श्रम शरीर को लगाने पड़ते है जिसका सीधा प्रभाव शरीर और मन के क्रियायो
पर पड़ता है !
·
शरीर में आलस्य ,सुस्ती की उत्पत्ति
और तमो गुण की वृद्धि होती है जिससे योग साधन में बाधा और प्रगति अवरुद्ध होती
है !
·
अधिक आहार से पाचन सम्बंधित और उसके कारण अन्य अनेकानेक रोग उत्पन्न होने से भी योग
साधना प्रभावित होती है ! जैसे – अपच आदि !
·
प्रायः अधिक भोजन जीभ के चटोरेपन ( स्वाद लिप्सा )के कारण करते है
जिससे आसक्ति व राग भी योग मार्ग से भटकाने वाले है !
·
अधिक आहार से धन , समय , उर्जा का अमूल्य भाग व्यर्थ नष्ट होने से
आवश्यक योग साधना के लिए समय श्रम शक्ति साधन की कमी रूप बाधा !
·
स्वाद के कारण कुछ भी कही भी बिना विचारे भोजन ग्रहण करने से उस
अन्न में समाहित उसके सूक्ष्म संस्कार से मन में उत्पन्न अनुपयुक्त भाव भटकाने
वाले है !
|
१.उत्साह -
·
आतंरिक मानसिक उर्जा का प्रवाह है जो किसी भी कार्य को लगन पूर्वक
करने की शक्ति देता है !
·
उत्साह से साधना में प्रगति तीव्र हो जाती है !
·
योग साधना में प्रगति के लिए उसमे सर्व प्रथम रूची व कल्याणकारी
परिणाम का ज्ञान होना चाहिए ! जिससे उस इच्छित लाभ प्राप्ति हेतु उसके योग साधन
में रुचि व उत्साह में वृद्धि होती और साधना में मन लगता है !
·
लम्बे समय तक साधना के पश्चात् उससे उत्पन्न शारीरिक- मानसिक प्रभाव
भी मन को संतोष और प्रफुलता प्रदान करने से साधना ओर उत्साह एवं तत्परता पूर्वक करने लगते है ! जो शीघ्र
सिद्धि की और ले जाता है ! यथा - प.यो.-१/३५-३६
“विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबन्धनी!”
“ विशोका वा ज्योतिष्मती !“
·
इस प्रकार उत्साह योग सिदधि में साधक है !
|
२.अधिक श्रम –
·
अधिक श्रम से शरीर के
अमूल्य शक्ति सामर्थ्य का त्तेजी से ह्रास होने से उत्पन्न थकावट व पीड़ा योग
साधना में बाधक !
·
इससे उत्त्पन्न शारीरिक मानसिक कष्ट, रोगादि योग साधना में विघ्न बनते है !
·
दिनचर्या अव्यवस्थित हो जाने से सभी कार्यों के साथ साथ योग साधन भी
प्रभावित होता है !
|
२.साहस-
·
प्रचलित अवान्छ्निये प्रवाह के विपरीत या बदलाव के लिए साहस का होना
अत्यंत आवश्यक है !
·
आत्म विश्वास और ईश्वर विश्वास अथवा सत्य ज्ञान से व्यक्ति में
अद्भुत साहस उत्पन्न होता है जो योग सिद्धि में सहायक है !
·
प्रतिकूलताओ से न डरकर विपरीत परस्थितियो से डटकर मुकाबला करते हुए अपने
इष्ट को प्राप्त करना साहस के बलबूते संभव होता है ! कहा गया है – साहसी ही विजय
होते है ! आग में तपने से सोना खरा होता है ! हीरा खरादे जाने पर चमकता है ! बीज
गलने पर ही वट वृक्ष बनता है ! उसी प्रकार योग साधनों में तपने का साहस कर
व्यक्ति अनुपम योग विभूति व सिद्धि को पा कर धन्य कहाता है !
|
३.अधिक - बोलना
·
अधिक बोलने से शरीर में प्रायः शरीर के अधिकांश उर्जा खर्च होती है
जिससे योग साधना में बाधा !
·
अधिक बोलने से चित्त में तद्विषयक भाव व विचार का चित्त में निरंतर
प्रवाह से वृत्ति रूप प्रवाह भी योग सिद्धि के विपरीत !
·
अधिक बोलने ( वाचालता ) में अनुपयुक्त वचन बोले जाने का भय अधिक होते
है जिससे मिथ्या वचन का दोष और अविश्वास उत्पन्न होने से आत्मविश्वास की कमी होने
पर बाधा !
·
प्रायः वाचालता के कारण अनावश्यक दोस्त एवं दुशमन पैदा होने और अधिक
जनसंपर्क होने से योग साधना में विघ्न !
·
वाचालता से बहिर्मुखी प्रवृति होने के कारण योग के लिए आवश्यक
अंतर्मुखी ( प्रत्याहार ) की हानि !
|
३.धैर्य –
·
सभी कार्य पूर्ण होने में अपना एक निर्धारित समय लेता है ! अत: जन्म
जन्मान्तर से संचित कर्म संस्कारो के क्षय होने समय लगाने पर योग साधना से
उकताना नहीं चाहिए ! वरन धैर्य पूर्वक अभ्यास करना चाहिए
·
कर्म – फल का सिद्धांत सुनश्चित है अतः किये गए साधना का परिणाम भी
निश्चित ही शुभ होगा “ एसा विश्वास रखना चाहिए ! “साधना – सिद्धि !” - पं.श्रीराम
शर्मा आचार्य
|
4.नियम पालन में आग्रह
·
विविध रूपात्मक इस प्रकृति के भौतिक संसार के परे परन्तु सम्यक रूप
से व्याप्त परम तत्त्व से एकाकार उस द्रष्टा रूप में स्थित होना योग है ! तदा
द्रष्टु स्वरूपेवस्थानाम ! १/३ प.यो. !
·
ये प्रकृति सदेव परिवर्तन शील है जिससे काल व स्थिति अनुसार योग
साधन के नियम में भी परिवर्तन आवश्यक होता है ! अतः योग सिद्धि के लिए रूढ़िवादी
न बनकर एक सत्य को अलग – अलग रूपों में अनुकरण की साहस होना आवश्यक है !
·
उदाहरण के लिए आइन्स्टीन के सापेक्षवाद का प्रसिद्ध सिद्धांत !
·
नियम का आग्रह प्रायः अविवेकशीलता का सूचक है जो कष्टकारक एवं भटकाने
वाला है !
·
योग अति नहीं वरन सामंजस्य, संतुलन का नाम है यथा “समत्वं योग
उच्यते !” गीता- २/४८!
|
4.यथार्थज्ञान –
·
वास्तविक सत्य ज्ञान अर्थात नित्य ( पुरुष ) – आत्मतत्व व अनित्य(
परिवर्तनशील, नाशवान) प्रकृति जड़ तत्त्व का सम्यक ज्ञान होना !
·
सांसारिक सुख भोगों से आसक्ति कम होती है !
·
नाशवान दुखस्वरूप भोगो के
वास्तविक स्वरुप के ज्ञान से भोगो से वैराग्य
हो योग उन्मुख होते है !
·
सुख आनंद व शांति के मूल स्रोत आत्म तत्व के यथार्थ ज्ञान से उस
स्थिति के प्राप्ति के लिए योग साधना में तत्परता, रुचि , उत्साह आदि बढ़ने से सिद्धि
की और तीव्र गति होती है !
·
बंधन का कारण अविद्या है – तस्य हेतुरविद्या ! प.यो.- २/२४ अत: उसका
विवेक ज्ञान से नाश होने पर समाधि ( योग सिद्धि ) होती है !
·
विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय:! २/२६ प.यो.!!
निश्छल और निर्दोष
विवेकज्ञान हाँ ( मुक्ति ) का उपाय है !
|
५.अधिक लोक संपर्क
·
अधिक लोकसंपर्क
होने से अधिक लोगो का मिलाना जुलना होता है उसी अनुसार समय ,श्रम, शक्ति , साधन
आदि अधिक व्यय होते जो योग साधन में बाधक होते है !
·
अधिक जन संपर्क से
मिलाने वाले लोगो के विभिन्न भावों व व्यवहारों के अनुसार चित्त में हर्ष, शोक,
सुख , दुःख आदि भावों की उत्त्पत्ति से बाधा !
·
उत्पन्न अनावश्यक
राग , दवेष ,इर्ष्या, भय , क्रोध, प्रीति आदि भी बांधने वाला होने से बाधक है !
|
६.लोकसंग का
परित्याग
·
अधिक लोक संपर्क से जो नाना विध हानिया होती है उसका लोकसंग
परित्याग से कमी होने से योग सिद्धि में सहायक होते है !
·
एकाग्रता , एकांत व शान्ति
की प्राप्ति होने से भी सहायक हो जाता है !
|
६.मन की चंचलता
·
मन अन्य सभी इन्द्रियों का स्वामी व संचालक होने से उसके चंचल होने
पर इन्द्रिय निग्रह कठिन हो जाता है !
·
इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाते है ,योग मार्ग से भटकाकर – भोग मार्ग
की ओर ले चलता है !
·
एकाग्रता की कमी होती है , ध्यान धारण व समाधि की और गति नहीं हो पाती
! सामान्यतः एक कार्य व स्थिति में में भी देर तक स्थिर नहीं रह पाने से आसन ,
प्राणायाम, मुद्रा, नादानुसंधान आदि साधन भी नहीं हो पाते !
·
मन की व्यर्थ चंचलता मानसिक उर्जा की क्षति और कर्म संस्कारो को बढाने
वाला होने से भी बाधक है !
|
५.संकल्प-
·
यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा की इच्छा ( संकल्प) “एको·हम बहुस्यामि !” से हुई बताते है – गायत्री
महाविज्ञान ! इससे संकल्प शक्ति की महत्ता सिद्ध होती है ! संकल्प ये सूक्ष्म
किन्तु प्रचंड शक्ति का स्रोत है जिससे आश्चर्य जनक कार्य संपन्न होते देखे जाते
है !
·
योग साधना में संकल्प शक्ति सहायक हो बाधाओं से बचाते हुए बिना भटके
सिद्धि की और ले जाता है !
|
Ø
हठ सिद्धि के लक्षण – ह. प्र.- २/७८
वपु: कृशत्वं वदने प्रसन्नता
नाद्स्फुतात्वं नयने सुनिर्मले !
आरोगता बिन्दुजयोग्निदीपनम नाडीविशुद्धिर्हठसिद्धिलक्षणम !!२/७८ !!
अर्थात – “शरीर में हल्कापन , मुख पर प्रसन्नता ,
स्वर में सौष्ठव , नयनो में तेजस्विता , रोग का अभाव , बिंदु ( आज्ञा चक्र से
स्रावित विशेष स्राव ) पर नियंत्रण , जठराग्नि की प्रदीप्ति तथा नाडीयों की
विशुद्धता सब हठ सिद्धि के लक्षण है !”
व्याख्या
-
१.शरीर में हल्कापन –
·
शरीर में विजातीय तत्त्व जितना अधिक जमा रहते है शरीर
उतना ही रोग ग्रस्त, तनाव ग्रस्त एवं भारी लगता है जो तमो गुण की अधिकता को भी
प्रकट करता है ! इसके विपरीत हठ योग के विभिन्न अभ्यास जैसे – षट्कर्म , आसन,
मुद्रा-बंध, प्रत्याहार ,प्राणायाम,ध्यान व समाधि से क्रमश: शोधन , दृढ़ता, स्थैर्य,लाघवता,
आत्म प्रत्यक्ष , और निर्लिप्तता की प्राप्ति होती है !( घेरंड संहिता १/९-११ )
·
अर्थात – शोधन से सम्पूर्ण अंगो की शूद्धि , व
प्राणायाम से समस्त नाड़ियो में दिव्य पप्राण का प्रवाह होने से शरीर में गुरुत्व
कम होता है प्राण की उर्ध्व गति हल्कापन को और भी बढ़ाते है ! यथा – “उदानजायाज्जलापंककंटकादिष्वसंग
उत्क्रान्तिश्च !!प.यो.- ३/३९ !!” उदान वायु को जित लेने से जल , कीचड़, कंटक आदि
से उसके शरीर का संयोग नहीं होता और उर्ध्वगति भी होती है !
२.मुख पर प्रसन्नता –
·
मुख मंडल अन्तस् का दर्पण कहा जाता है जिसमें
शरीर के साथ साथ अन्तः करण के स्थिति भाव आदि का झलक दिखाई देती है ! हठ योग सिद्ध
योगी की शारीरिक आरोग्यता, ताजगी, दृढ़ता, हल्कापन आदि से अंतस में दिव्य संतोषप्रद
प्रसन्न भाव सदेव मुख पर झलक देती रहती है !
·
प्रत्याहार से धैर्य की प्राप्ति होने से
स्वाभाविक प्रसन्नता जो आशंका, भय , चिंता, क्रोध आदि के कारण नष्ट होती वह सदेव
प्रकट रहने से भी मुख पर प्रसन्नता का भाव होता है फिर चाहे परिणाम अनुकूल हो या
प्रतिकूल योगी सदेव समभाव में स्थित सत्य आत्म तत्त्व में निमग्न रहता है ! “समत्वं
योग उच्यते!” गीता- २/४७
·
मुद्रा बंध , नादानुसंधान ध्यान व समाधि भी सहज
स्वाभाविक दिव्य आनंद की अनुभूति कराता है जिससे भी योग सिद्ध योगी सदेव
प्रसन्नचित दिखते है !
३.स्वर में सौष्ठव
·
वाणी के
माध्यम से अन्तः के भावो की सहज अभिव्यक्ति होती है , इससे वक्ता के स्तर ,
मन:स्थिति आदि पता चल जाता है ! योग सिद्ध योगी शारीरिक - मानसिक रोग , इर्ष्या,
द्वेष, राग आदि से मुक्त होने से सहज अंतस के आनंद से लिपटी हुई मधुर कल्याणकारी ,
हितकारी वाणी नि:सृत होती है !
·
षट्कर्म
से नाक, गले कंठ आदि के सफाई और दृढ होने से स्वर में मधुरता आ जाती है !
4.नयनो में तेजस्विता -
·
नयनों सदेव
प्राण का प्रवाह होता रहता है, जिसके कारण प्राणयाम आदि से नाडी सुद्धि और प्राण
वृद्धि से प्राणवान प्रखरता नेत्र में तेज के रूप में दिखता है !
·
नेति ,त्राटक
आदि से शुद्धि के कारण नेत्र व सम्बंधित नाड़ियाँ निर्मल होने से भी तेजस्विता और दिव्य
दृष्टि संपन्न होते है !
५.रोग का अभाव
·
रोग
मनुष्य का स्वाभाविक स्वरुप ( स्थिति ) नहीं है इसके विभिन्न कारण जैसे- विजातीय
द्रव , अनियमित दिनचर्या, कुसंस्कार, दुर्भावनाएं आदि है जिसके कारण नाना प्रकार
के शारीरिक-मानसिक रोगों की उत्त्पति होती है !योग अभ्यास से इस कारणों का सर्वथा
आभाव हो जानेसे स्वाभाविक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है !
·
षट्कर्म,
आसन, मुद्रा-बंध, प्राणयाम , प्रत्याहार आदि से सम्बंधित समस्त रोगों का आभाव और
अन्य रोगों के उत्त्पति के मूल कारण को ही नष्ट कर चिर स्वास्थ्य प्रदान करता है !
६.बिंदु ( आज्ञा चक्र से स्रावित विशेष स्राव ) पर
नियंत्रण
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आज्ञा चक्र से होकर सदेव स्रावित होने वाला दिव्य
सोम( विशेष स्राव )को निचे गिर कर जठराग्नि में जल कर भष्म होने से बचा कर उसे
प्राणायाम ,मुद्रा बंध आदि से रोक कर
उर्ध्व गति करने दिव्य तेज , शक्ति व आरोग्यता की प्राप्ति होती है !
७. जठराग्नि की प्रदीप्ति
·
आसनों जैसे मयूरासन, वज्रासन, हंसासन, मंडूकासन
आदि से जठराग्नि प्रदीप्त होता है !
·
नियमित आहार – विहार व मिताहार आदि के प्रवृति
वाले होने से हठ योगी के जठराग्नि मंद होने से बचकर सदेव प्रदीप्त रहता है !
८. नाडीयों की विशुद्धता
·
शरीरस्थ ७२००० नाड़ियो का हठयोग के दीर्घ काल तक
अभ्यास से पर्याप्त शुद्धि हो जाती है जैसे षट्कर्म, प्राणायाम आदि से नाड़ियाँ
विशुद्ध हो जाती है ! जिससे आरोग्यता, प्रखरता
और लाघवता भी प्राप्त होती है !
इसके अलावा
श्वेताश्वतर उपनिषद् में इसी प्रकार के योग सिद्धि का वर्णन मिलाता है !
न तस्य रोगों न जरा
न मृत्यु:! प्राप्तस्य योगाग्निमय शरीरम !!२/१२!!
लघुत्वमारोग्यं
लौलुपत्वं वर्णप्रसादंस्वरसौष्ठं च !
गंध: शुभो
मूत्रपुरीषमलपं योगप्रवृतिं प्रथमां वदन्ति !! २/१३ श्वे.श्व.उप.!!
Ø
हठयोग की उपादेयता (महत्व )–
१. व्यक्तिगत , पारिवारिक , सामाजिक
एवं
वैश्विक उपयोगिता !
२. पुरुषार्थ सिद्धि – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में उपयोगिता !
३. समस्त दुखों की निवृति – अज्ञान, अशक्ति, एवं आभाव
के नाश में !
4. जीवन के विभिन्न क्षेत्रो में – शिक्षा,
स्वास्थ्य, स्वावलंबन, सरकारी – गैर सरकारी संस्थानों एवं शोध अनुसन्धान
में !
५.पर्यावरण , खेलकूद , सुरक्षा , पर्यटन आदि में !
Vasisth samhita k anusar Pranayam or dhyana btaye .
ReplyDeleteधन्यवाद आपका ,🙏🙏🙏
ReplyDeleteVery informative
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