योग का अर्थ -
योग शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के युज् धातु में घ´् प्रत्यय लगाके हुई है। जिसका सामान्य अर्थ होता है- जोड़ना। पाणिनि व्याकरण के अनुसार गण पाठ में तीन युज् धातु है-युज्-
1. युज् समाधौ (समाधि) दिवादिगणीय
2. युजिर् योगे (संयोग या जुड़ाव) रुधादिगणीय
3. युज् संयमने (संयम) चुरादिगणीय
1. समाधि -
युज् समाधौ से बना यह शब्द जिसका अर्थ है अपने वास्तविक रूप को जानकर उसमें निमग्न रहना।समाधि के विषय में आम लोगों की धारणा यही रहती है कि आदमी निष्क्रिय या मूच्र्छित हो जाता है। परन्तु समाधि प्राप्त योगियों के अनुसार समाधि वह विशेष स्थिति है जिसमें जीव सम्पूर्ण चैतन्य (जागरुक) होता है। वह भूत- भविष्य सब जानने की स्थिति में होता है। वह सभी कार्य प्रकृति के नियमों के अनुसार करता है। उसका विशेष गुण यह होता है कि वह सभी को आत्मोन्नति के लिये प्रेरित करता है। उसके सत्, चित्, आनन्द (प्रसन्नता) को कोई भी किसी भी स्थिति में छीन नहीं सकता । तथा वह सबके प्रति आत्मवत् सर्वभूतेषु का भाव रखता है।
2. संयोग या जुड़ाव -
युजिर् योगे से बना यह शब्द जिसका अर्थ होता है - एकत्व, जुड़ाव, संयोग, मेल या जोड़ना। इसी अर्थ को कई योगियों ने प्रमाणित नहीं माना है। उनका मानना है कि आत्मा परमात्मा का अंश है। तो इसमें दोनों को अलग करना संभव नहीं है।परन्तु वहीं कई योगियों का मानना है कि जीव और ब्रह्म के बीच कोई आवरण होता है उसे क्षीण करके हर जीवात्मा परमात्मा से जुड़ सकता है। जैसे- समुद्र का जल एक घड़े में तथा समुद्र का जल दोनों पानी का समान गण है परन्तु दोनों के मिलन के बीच घड़े का आवरण है। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर विभिन्न प्रकार के संस्कारजन्य चित्त वृत्तियों का आवरण परमात्मा के मिलन में बाधा है जिसे नष्ट करके आत्मा एवं परमात्मा जुड़कर एक हो सकते हैं।
3. संयम -
योग शब्द ‘युज् संयमने’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है - संयम या वशीकरण। हठयोगियों के अनुसार अपने शरीर पर कठोरतापूर्वक संयम करके अपने मन पर संयम करना संभव है। परन्तु राजयोगियों के अनुसार शरीर को बिना कष्ट पहुँचाये मन को नियंत्रित करना है। मन को छोेटे- छोटे संकल्पों का पालन कर उसे नियंत्रित किया जा सकता है। युगऋषि के पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार संयम के चार प्रकार हैं-इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम एवं विचार संयम। इसी योग का उत्कृष्ट उदाहरण है।
परिभाषा -
1. महर्षि पतंजलि के अनुसार -‘‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’’ (पतंजलि.यो.सू. 1/2)
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।2. गीता के अनुसार -
‘‘योगः कर्मसु कौशलम्’’ (गीता 2/50)
अर्थात् कर्म करने की कुशलता ही योग है। ‘‘समत्वं योग उच्यते’’ (गीता 2/48)
अर्थात् सुख- दुःख, हानि- लाभ, सफलता- असफलता आदि द्वन्द्वों में सम रहते हुए निष्काम भाव से कर्म करना ही योग है। ‘‘दुःख संयोगवियोगं योग संज्ञितम्’’ (गीता 6/23)
अर्थात् जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है उसका नाम योग है।3. महोपनिषद् के अनुसार -‘‘मनः प्रशमनोपायो योग इत्यभिधीयते’’ (महो0 5/42) अर्थात् मन के प्रशमन के उपाय को योग कहते हैं।
4. महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार- ‘‘संयोग योगयुक्तो इति युक्तो जीवात्मा परमात्मनो।’’
अर्थात् जीवात्मा और परमात्मा के मिलन को ही योग कहते हैं।5. कैवल्योपनिषद् के अनुसार- ‘‘श्रद्धा भक्ति ध्यान योगादवेहि’’
अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, ध्यान के द्वारा आत्मा का ज्ञान ही योग है।6. विष्णुपुराण के अनुसार- ‘‘योगः संयोग इत्यक्तः जीवात्मा परमात्मनो।’’
अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतः मिलन ही योग है।7. योगशिखोपनिषद् के अनु0- ‘‘योग प्राणपानयोरैक्यं स्वर जोरेत अस्तथा।’’
सूर्य चन्द्रमसो योग जीवात्मा परमात्मनः।।’’
अर्थात् प्राण- अपान को रज, वीर्य को सूर्य एवं चन्द्रमा को तेजस्विता एवं शीतलता को, जीवात्मा एवं परमात्मा को मिलाना ही योग है।8. सांख्य दर्शन के अनु0- ‘‘युं प्रकृत्यो वियोगेऽपि योग इत्यभिधीयते।’’
अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व के शुद्ध रूप में अवस्थित होना ही योग है।9. लिंग पुराण के अनु0- चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाना व उसे पूर्णतः समाप्त कर देना ही योग है।
10. श्रीरामकृष्ण परमहंस के अनु0- परमात्मा की शाश्वत अखण्ड ज्योति के साथ अपनी ज्योति को मिला देना ही योग है।
11. युग ऋषि के अनु0-
जीवन साधना ही योग है। चित्त की चेष्टाओं को बहिर्मुखी बनने से रोककर उन्हें अंतर्मुखी करना तथा आध्यात्मिक चिंतन में लगाना ही योग है।अभाव को भाव से, अपूर्णता को पूर्णता से मिलाने की विद्या योग कही गई है।
12. स्वामी विवेकानंद के अनु0-
योग व्यक्ति के विकास को उसकी शारीरिक सत्ता के एक जीवन या कुछ घण्टों में संक्षिप्त कर देने का साधन है।
13. स्वामी दयानंद के अनुसार- सजगता का विज्ञान योग है।
14. विनोबा भावे के अनुसार -
जीवन के सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है उसी को योग कहते हैं।15. महर्षि वशिष्ठ के अनु0- संसार सागर से पार होने की युक्ति योग है।
16. महर्षि अरविंद के अनु0- अपने आप से जुड़ना ही योग है।
17. योगशास्त्र के अनु0-
‘‘सर्वचिन्ता
परित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते।’’ अर्थात् मनुष्य जिस समय समस्त
उद्विग्नताओं को त्यागकर देता है उस समय उसके मन की लयावस्था को योग कहते
हैं।