परिचय:
आदि शक्ति की अवतार, युग दृष्टा युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के जीवन सहचरी , साधना तप व युग निर्माण योजना में अनवरत भागीदारी
एवं अखिल विश्व गायत्री परिवार के परम वंदनीया स्नेह शालिला माँ भगवती के नाम से विश्व प्रसिद्ध ।
जन्म:
ब्रह्मण
दंपत्ति जसवंतराव एवं रामप्यारी शर्मा
आश्विन कृष्ण
तृतीया संवत 1982,
20सितंबर 1926 ई की प्रातः 8 बजे के
लगभग दिव्य ज्योति ने जन्म लिया।
पं.
जसवंत राव शर्मा उस समय देवी के नवार्ण मंत्र का जाप कर रहे थे । उनके ध्यान मे
माता की छवि प्रत्यक्ष थी।
विशिष्ट वर्ष में अवतरित हुई महाशक्ति
पिता
के साधना काल और ज्योतिष की गाणनाएॅ का संकेत।
1926
ई. में महान आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण का वर्ष
इसी
वर्ष वसंत पर्व को 15 वर्षीय श्री राम को हिमालय वासी महागुरूदेव का दर्शन ।
श्री
अरविंद आश्रम पाण्डिचेरी में महायोगी अरविंद पूर्णयोग की विशेष सिद्धि अवतरण ।
वर्ष के अंत में अतिमानसिक चेतना का अवतरण।
यह
हजारो लाखो लोगो को भरपेट भोजन खाना खिलाएगी ,यह
तो सभी के भाग्य को बनाने वाली भगवती है।
बाल्यकाल:
सभी की
लाडली थी । उसमें एक देवीय मोहिनी थी। प्रेम से सभी उसे लाली कहकर बुलाते ।
अन्य
बच्चो की तरह चंचल नटखट न होकर , भोलापन
और मासूमियत लिए बडी ही गजब की शांत प्रवृति थी ।
जन्मदात्री
मां मात्र 4 वर्ष की आयु मे छोड कर परलोक मे जा बसीं।
वे
इस दुःखदायी घटना पर खुब रोई पर खुद को संभाल कर कभी अपने से बडी बहन एवं भाईयो को
भी समझाने लगती।
कभी कभी वह गुमसुम - सी चुपचाप पालथी मार कर बैठ जाती । उन्हे इस तरह बैठा देख भाई द्वारा पुछने पर . .
‘‘ हाॅं , सो तो हैैैै। सारी दुनिया का भर मुझ पर नही तो ओर किस पर होगा।’’
उनकी
भाभी के साथ प्रेम पूर्ण आत्मिय संबंध - एकबार भाभी को चिंतित देखकर उसके चिंता का
कारण पुछना नहीं बताने पर स्वयं उसे बताना
उनकी
बात अक्षरशः सत्य सिद्ध।
भगवती
का अपने भाभी के लिए विषेष लगाव छोटे - बडे कामो मे मदद करती
गुडिया
- गुडडे के रोचक खेल ,खेल मे अनेक दिव्य भाव उमगते
खेलो
मे सबसे अधिक प्रिय खेल - शिवपूजा।
शिवपूजन
करते हुए भावमग्न स्थिति में एक युवक को एक कोंठरी में पूजावेदी पर प्रज्वलित
सााधना दीप के सामने ध्यानस्थ दिखाई देते।
कई्र
बार ऐसा देखने पर भगवान शिव के युग प्रत्यार्वतन के लिए अवतरित होने का संभवना।
शिव मंत्र जपते हुए उसे शिव योगी समझाना ।
दिव्य
रसानुभूति की प्रगाढता और आराध्य से मिलने के लिए तीव्र पुकार से बालिका भगवती का
एक प्रखर युग साधिका में रूपान्तरण।
11-
12 वर्ष की उम्र से शुरू हुई साधना फिर
सोते जागते , उठते बैठते खाते - पीते हर समय ध्यान
किया करती ।
सृष्टि
में में व्याप्त अव्यक्त नाद का हर समय श्रवण।
जप
साधना के कारण गुप्त आध्यात्मिक केन्द्रों का जागरण।
ध्यान की गहनता में अपने अतीत की झलकियाॅ देखना
।
दक्षिणेश्वर
मन्दिर में रामकृष्ण के साथ शारदा मां के रूप में
बनारस
में सन्त कबीर के साथ ‘‘लोई ’’ के रूप में देखना।
जो
कबीर थे , वही रामकृष्ण और अब यह महा योगी ।
इन्हीं
शिवावतार महायोगी के साथ अपने परिणय का अनुमान।
परंपरा
के अनुसार पिता का उसके विवाह की चिंता।
बडी
बहन ओमवती के आग्रह पर उनके ससुराल में जाना । वहां भी अपनी ध्यान साधना का क्रम
बनाए रखती।
पंडित
रूपकिशोर शर्मा के सुपुत्र अत्यन्त सुन्दर , गुणी
एवं तपस्वी वर का चयन।
फाल्गुन
शुक्ल सप्तमी संवत् 2001
,18,फरवरी 1945 के मंगल वेला में शुभ
विवाह।
यह
नवजीवन का आदर्श विवाह ।
वस्तुतः
ज्ञान और भक्ति का अभूतपूर्व संयोग।
पार्वती
- भगवान शंकर का मिलन।
परा
प्रकृति का पुरूष से संयोग।
दया, श्रद्धा एवं ओमप्रकाश सभी को मातृ
वात्सल्य प्राप्त हुआ।
पुत्र
को जन्म देने मात्र से ही माता नहीं होती । वस्तुतः माता अपनी सन्तानों को
सुसंस्कारित बनाने ,उनका सर्वतोमुखी विकास करने तथा अपनी उपार्जित आत्मशक्ति का बीजारोपन करने
से ही माता सुमाता कही जाती है।
अखण्ड ज्योति संस्थान में आने वाले हर व्यक्ति के वे माता हो गई। वात्सल्य व सहकारयुक्त
सेवा भाव से
गृहकार्य
देर रात तक होने से मध्य रात्री तक ही सो पाना और सूर्योदय से दो घंटे पूर्व जगकर
साधना करना।
सर्वलोकस्य माता
माता
जी के कोख से मृत्यंजय ‘‘सतीश ’’ और शैलबाला का जन्म।
सब
के प्रति अबाध वात्सल्य ...
एजू
नामक गृहकार्य सहायिका से एक प्रसंग में यह कहना की जैसें मैं ओम् और सतीश की माता
हूॅ वैसे ही लतीफ की भी माता हूॅ। मनुष्य
मात्र में परमात्मा की ज्योति देखकर परम उदार व्यवहार।
गायत्री
तपोभूमि की प्राण प्रतिष्ठा
गायत्री
तपोभूमि की मूल प्रेरणा माता जी के अंतः करण में उत्पन्न हुई
एक
दिन ध्यान की भाव दशा मे जगन्माता
युगशक्ति गायत्री के रूप मे एक मंदिर विद्यमान देखना।
साधारण
नही अपितु लोक कल्याण के विविध क्रियाकलाप के केन्द्ररूप।
ठीक
ऐसा ही पुज्य गुरूदेव को अपने मार्गदर्शक सत्ता का सूक्ष्म संदेश प्राप्त हुआ
बताना।
अध्यात्मिक
साधना केन्द्र रूप गायत्री तपोभूमि
निर्माण का संकल्प।
पूरी
राशी देकर आचार्य द्वारा महर्षि दुर्वासा के तपस्थली वह जमीन खरीदना ।
भूमि
क्रय के पशचात निर्माण कार्य की चिंता।
माताजी
द्वारा सहज सहर्ष समस्त गहनों आदि को आराध्य
समर्पित
ध्यानावस्था
में माता जी द्वारा देखे अनुसार तपोभूमि का बनकर तैयार होना।
24000 तीर्थो का जल एवं पवित्र रज की स्थापना।
हिमालय
के आध्यात्मिक केन्द्र से लाई गई प्राचीन पवित्र अग्नि की स्थपना कर बाहर भीतर से
अमोघ रक्षा कवच विनिर्मित।
तदन्तर
अध्यात्मिक संस्कार प्रदान करने हेतू ‘‘युगसाधना ’सत्रो का प्रारंभ।
सुर्य
का अनुगमन करने वाली छाया के समान माता जी गुरूदेव के साथ साथ ध्यान - समाधि जैसे
कार्याे में उनका अनुसरण।
नियमित
योग साधना की प्रगाढता और सघनता से सूक्ष्म शरीर अति तेजस्वी एवं प्रचंड उर्जसवल
होना।
समस्तयोगविभूतियो
को अर्जन ।
शिषयों
भक्तों की पीडा और संकटो का योग शक्ति से निवारण करती ।
गुरूदेव
मनुष्य देह मे साक्षात ईश्वर है।उसे सामान्य समझने की भूल मत करना ।
साधना
के प्रसंग को गुप्त रखने का निर्देश । जैसा उनने सदेव रखा ।
शिव शक्ति का अंतर्मिलन
योग
साधना की प्रगाढता में शिव शक्ति परस्पर अंतर्लिन । इसका दो रूपो मे प्रकाटय
शिव
स्वरूप गुरूदेव का आत्म चेतना शक्तिस्वरूपा माताजी से घुल मिलकर तदाकार हो गयी।
मध्य
प्रदेश के एक महिला भक्त शिवरानी देवी का ध्यान की प्रगाढ अवस्था मे सूर्य
मण्डलस्थ माता गायत्री का माता जी रूप में बदना और फिर गुरूदेव रूप ।
गायत्री
तपोभूमि में इसकी चर्चा गुरूदेव से करने गुरूदेव द्वारा शक्ति स्वरूपा माताजी ही
इस सृष्टि की जननी बताना ।
उस
माता का भावना के अनुसार अनेक रूप में व्यक्त होना ।
महाराष्ट्र
के विष्णु नारायण गोरीकर का घरेलु समस्याओं से आक्रांत भावदशा में माताजी से
मिलना माता ली द्वारा बिना बताये उसके समस्या समाधन होने का आशिर्वाद बाद में
गुरूदेव से भी उस वरदान का उल्लेखकर निशिचंत करना।
योग व अध्यात्म में योगदान
विराट
संगठन संचालन:
माता
जी के दैवी क्षमताओं से अच्छी तरह परिचित गुरूदेव ने निश्चिंतापूर्वक हिमालय के
लिए प्रस्थान किये।
माताजी
के दैवी स्वरूप के प्रति अनभिज्ञ और श्रद्धा भक्ति के अभाव में कुछ कार्यकताओं की
इन दिनो विपन्न स्थिति पस्पर विद्वेष।
गुरूदेव
की हिमालय यात्रा पुरी हुई और निश्चित समय पर वापस आये और पुनः संचालन उन्हे सौप
दी।
अंन्तर्यामी
गुरूदेव को बिना बताये सारी स्थितियां पता चलना और दोषी जनो के प्रति कठोर
कार्यवाही करने का निश्चय पर मााता जी के ममता यहां अपने बच्चे की रक्षा करना।
मिशन
के भावी विस्तार के लिए उन दोषी जनो को नया जीवन के लिए विदा कर दिया।
इसलिए
वन्दनीया माताजी ने पवित्र भगीरथी के तट पर हिमालय की छाया मे अपने तपस्थली बनाने
का निश्चय।
गुरुदेव एवं माता जी के द्वारा ध्यान में महर्षि विश्वामित्र की तपस्थली हरिद्वार के समीप
मे देखना
सन्1968 में सप्तसरोवर के निकट 1.5 एकड जमीन खरीद ली। और निमार्ण कार्य पा्ररंभ।
पुत्र
सतीश एवं पुत्री शैलबाला का विवाह सम्पन्न कर ।
ग्ुरूदेव
के तृतीय हिमालय यात्रा का अभूतपर्व समय।
गुरूदेव
माताजी का हजारो भक्त एवं शिष्यो से विदाई।
गुरूदेव
के साथ ममता मयी मां ने अखण्ड दीपक के साथ शांतिकुंज आना।
मताजी
करूण वेदना को हर हाल मे सहकर विश्वहित मे आराध्य के हिमालय के लिए विदाई
सभी
संतानो को सम्भालना और दिलासा संतावना देना।
गुरूदेव
के हिमालय प्रस्थान के बाद माता जी के जीवन मे तप की सघनता छा गयी ।
इस
तप की उर्जा के स्पंदन से शांतिकुंज का कणकण अलौकिक दिव्यता से उदभासित हो गया
माताजी - बेटो जब बच्चे कोई भी गलती करते है तो
माता को ही उसकी क्षति पूर्ति करनी पडती है , मै
मां हूॅ इस कारण इस प्रयाश्चित करने के लिए निरंतर सूक्ष्म शरीर से साधना करनी
पडती है।
संकल्प
किया है कि शांतिकुंज क्षेत्र मे अध्यात्मिक उर्जा का अक्षय भण्डार बढाने के लिए
यहां
जो परिजन विशेष श्रद्धा और भावना पूर्वक साधना करेंगें उनके प्राणें का
प्रत्यावर्तन हो जायेगा।
सदेव
माता जी और गुरूदेव के बीच भाव संदेशो का
आदान प्रदान होते रहता था।
अक्षय
तप कोष की समृद्धि के लिए शंातिकुंज में सूक्ष्म साध्ना में लीन रहती थी
इसी
से पाक की 90 हजार सेना पर भारत की जीत और उधर हिमालय में आसुरी तत्वों के विनाश
हेतू पतो लिन थे
।
समुचे
राष्ट्र का कठिन दौर से गुजरना । भारत का विजय
मनाना और बंगलादेश का अपना जन्मदिवस।
1973
गुदेव
का शांतिकुंज वापसी और प्राणप्रत्यावर्तन साधना का शुरूआत।
इस
तरह के अनेक साधना शिविरो का 1 दशक अवधि तक शंतिकुंज में संचालन हजारो साधकों की
भगीदारी।
सन्
1978 में माता जी को सहयोग देने के लिए शैल दीदी एवं डा ॅप्रणव पण्डया का आगमन और
अध्यात्म के वैज्ञानिक आयाम की स्थपना के लिए ब्रह्मवर्चस्व शेधसंस्थान की
स्थापना।
आदि
शक्ति जगदम्बा गायत्री का युग शक्ति के रूप में देश भ्रमण कर 24 शक्ति पीठ की
स्थापना।
माताजी
केा प्रत्यक्ष सूत्र संचालन हेतू इन दिनो तैयार करना।
1984
मे गुरूदेव पर एक घातक हमला -और क्षमा दान ।
विशव
वसुधा पर छाते जा रहे आसुरी आतंक को निरस्त करने के लिए और तुत्ीय विश्वयुद्ध की
संभाावना को समाप्त करने के लिए सूक्ष्मी करण साधना और सूक्ष्म शरीर से हिमालय यात्रा।
माताजी
द्वारा अपने समर्थ साधना शक्ति से गुरूदेव के स्थूल शरीर के आसुरी प्रकोप से रक्षा
।
माता जी की दोहरी जिम्मेदारी
गुरूदेव की साधना मे समर्थ सहयोग करना
गुरूदेव से भाती - भाती के आशए लगाए हुए
नादान बच्चो पर कृपा करना।
परिजनो
ने अपने भौतिक जीवन मे विभिन्न प्रकार के चमत्कार देखे
अपनी
तपः शक्ति से पल भर मे समस्याओं को हल करना।
मिलने
आये परिजनो को सामने बिठाकर प्यार से भोजन कराना।
विश्वकुण्डलिनी
के जागरण और पांच वीरभद्रो के निर्माण माता जी के दिव्य शक्ति संरक्षण में चल रहा
था।
सूक्ष्मीकरण
साधना के पश्चात गुरूदेव का कथन- मात्र तुम लोगो को ही माताजी के आशिष नही मिलते
उनके आशिष हमे भी मिलते है।
माताजी अपने मां के पेट सेही माता जी होकर पैदा
हुई है वे एक साथ सभी की मां है।
अब
तक के मेरे सारे जटिल प्रयोग उनके मातृत्व के संरक्षण के बल पर ही संभव हुए।
मिशन
के नये नये आयामो में संलग्नता।
सूक्ष्म
जगत के परिशोधन के लिए पुरी तरह से सूक्ष्म लोक मे डेरा जमाने का संकेत।स्थूल शरीर
को त्याग कर मिशन के सारा कार्य करते हुए
अक अंश में माताजी के भीतर रहेंगंे।
वियोग का महातप:
1990
की वसन्त पंचमी के दिन महाकाल का संदेश - एकांत वास।
अपनी
असहय विकलता को दबाते हुए अपने अराध्य की इच्छाही उनकी इच्छा थी।
शारदामणि
के समान के समान सौभाग्य चिन्ह धारण किये रहना।
निशिचत
तिथि 2 जून 1990 प्रातः 8 बजे लगभग गुरूदेव का महाप्रयाण।
देह
के भष्म होने के साथ अग्नी का तेज और ताप गुरूदेव के परम तेज के साथ वंदनीया माता
जी में समा गया।
मिशन
की अगणित जिम्मेदारियो को निभाते हुए विश्व जननी विश्व कल्याण के लिए निरंतर तप ।
जो
सहिष्णु है , वही तपस्वी हांे सकता है।
महाशक्ति
की महिमा का प्रकाटय
1-
4 अक्टुबर सन् 1990 तक श्रद्धांजली के कार्य में 5 लाख से अधिक परिजनो ने भाग लिया
,लाखो लोगो के नित्य भोजन व अक्षय
भण्डार ।
संस्कृति
संवेदना ने पाया राष्ट्र व्यापी विस्तार
माताजी
का हिमालय जाना ।
वापस
लौट कर शपथ समारोह में राष्ट्र व्यापी अश्वमेघ यज्ञ की घोषणा।
इस
संबंध में अखण्ड ज्योति का विशेषांक नवंबर 1992 निकालना।
वंदनीया
माताजी द्वारा प्रथम अश्वमेध यज्ञ के लिए वायुयान द्वारा जयपुर के लिए यात्रा।
यह
क्रम भिलाई ,गुना, भुनेश्वर ,लखनउ, बदौडा, भौपाल , नागपुर , ब्रहमपुर ,कोरबा , पटना, कुरूक्षेत्र, चित्रकुट।आदि
विश्वमाता का विश्व यात्रा की स्वीकृति:
पहला
अश्वमेध महायज्ञ 8- 11 जुलाई 1993 इंग्लैंड के लिस्टर नामक शहर में
टारेंटो
,अमेरिका - लासएंजेल्स।प्रायः 30 हजार
लोगो को दीक्षा।
सन्तानो
की पीडा के लगातार विषपान से स्वास्थ्य जरजर होना
16-
20, 1994 अश्वमेध में अंतिम भागिदारी
एक
लडकी का स्वप्न में वहां सीताजी का आना दिखना जो माता जी को देख खुशी से जंगली फल
सौपना।
अपने
परिजनो का दैहिक , दैविक, भौतिक तापो का हरण करती रही , रोग
शैया पर पड गुरूदेव के संकेतानुसार महाप्रयाण की तैयारी ।
स्थूल
शरीर त्याग कर सूक्ष्म शरीर से तप करना।
विशिष्ट
यौगिक क्रियाओं द्वारा ध्यानस्थ हो भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितंबर प्रातः काल में 11ः
50 पर स्थूल देह त्याग।
20
सितबंर 1994 को महाशक्ति के स्थूल देह चिताग्नि के तेज में विलीन।
तीनों योग जीवन में अनिवार्य
उपासना
साधना
अराधना
योग।
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