ईशावास्य उपनिषद् में योग विद्या Important for NTA NET JRF Yoga /Sanskrit

योग उपनिषद्
  1. इशावास्योपनिषद
  2. कठोपनिषद
  3. प्रश्नोपनिषद
  4. मुण्डक उपनिषद्
  5. माण्डुक्य उपनिषद्
  6. केन उपनिषद्
  7. एतेरय उपनिषद्
  8. तेतिरियोपनिषद
  9. छान्द्ग्योपनिषद
  10. बृहदारन्यक उपनिषद्  

ईशावास्योपनिषद्

स्लोक संख्या -1
ॐ ईशा पास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यत्केन भुन्जीथा मा गृधरू कस्य स्विद्धनम्।। 2।।
अनुवाद-अखिल ब्रह्माण्ड में जों कुछ भी जड-चेतन स्वरूप जगत है, यह सभी  ईष्वर से व्याप्त है। उसे ईष्वर के साथ रखते हुए त्याग पूर्वक इसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ क्योंकि यह धन-भोग्य पदार्थ किसका है़? अर्थात् किसी का भी नही है।
प्रस्तूत श्लोक में योग की विभिन्न स्वरूप का वर्णन मिलता है,जो इस प्रकार है-

1 ज्ञान निष्ठा का वर्णन ;- इस संसार के किसी भी वस्तू विषय आदि की कामना में कभी अनुचित क्रर्म नही करना चाहिए । और नही असक्ति उत्पन्न होने देना चाहिए। यदि इस प्रकार की ज्ञान दृष्टि अपना लिया जाय तो मनुष्य सहज ही उस योग अवस्था में पहूॅच सकता हैं।
2 क्रर्म निष्ठा का भावना ;- क्योकि सम्पूर्ण जगत में एक मात्र ईश्वर को र्सव्यापक बताया है इस जगत में अपने क्रर्म को निष्काम भाव से करते हुए उस परमात्मा को प्राप्त करने  का प्रयास करना चाहिए।
3 भौतिक कामनायो से वैराग्य की भावना ;- सभी प्रकार के भोग साधन एवं चराचर जगत हमेशा नही रहने वाला होने से किसी का नही होनेे वाला बताया गया है इस लिए उसके प्रति र्व्यथ में असक्ति नही रखना चाहिए । उसका त्याग पूर्वक भोग करते हुए उस ईश्वर  को प्राप्त करने ेा प्रयास करना चाहिए।
स्लोक 2
क्ुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत  ॅ् समारू।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।2।।
अनुवाद -इस स्लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इव्छा करे। इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा और मार्ग नहीं हैं, जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।
स्लोक 6
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चाात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।6।।
अनुवाद -जो सम्पूर्ण भूतो को आतमा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह इसके कारन ही किसी से घृृणा नहीं करता।ं
स्लोक 7
यस्मिन्सर्वाणि     भूतान्याात्मैेवाभूद्विजानतरू।
तत्र को मोहरू  करू शोक एकत्वमनुुपश्यतरू।।7।।
अनुवाद- जिस समय ज्ञानी प्ररूष केे लिए सब भूूत  आत्मा ही हो गयेे, उस समय एकत्व देनेे वाले को क्या शोेक और मोह हो सकता हैें।
ॐ शान्ति:  शान्ति:  शान्ति: ।

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