Chakrvarti samrat Ashok _ Kumari Parwati yadav(DSVV)

                 स्वकथन

      जीवन की सच्चाई को प्रकट करने वाले विद्वानों के यह कथन  ‘‘जीवन एक संघर्ष है’’ की प्रत्यक्ष अनुभूति मुझे तभी प्राप्त हो सकी जब मैंने अभिभावकत्व के स्नेहिल छाया से निकलकर बाहर की दुनिया में कदम रखा। साथ ही यह भी बोध हुआ कि द्वन्द्व भरा संघर्षों का मार्ग ही ऊँचे सोपानों तक पहुंचाता है।
इस सुअवसर को पूर्णता तक पहुंचाने तथा सार्थकता प्रदान करने में मेरा पुरुषार्थ तो एक निमित्त मात्र है। सही अर्थाें में इसका श्रेय उन लोगों को जाता है। जिनके आशीर्वाद, प्रेरणा, प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण व्यवहार तथा कुशल मार्गदर्शन के अभाव में इस परियोजना कार्य के पूरे होने की कल्पना भी करना दुष्कर है। मेरे सभी सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता का भाव अभिव्यक्त करती हूँ।
सर्वप्रथम पूज्यवर माताजी को हृदय से धन्यवाद करती हूँ। अगले क्रम में हम अपने शोध प्रबंध परियोजना कार्य के निर्देशक डाॅ0 मोना का हृदय से धन्यवाद करती हूँ, जिन्होंने हमको उचित मार्गदर्शन प्रदान किया। जिनकी सहायता से यह परियोजना कार्य संपन्न हो सका। प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मेरे सभी सहयोगी जनों व इष्टमित्रों के प्रति हम हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ।
अंत में मैं पुनः अपनी आराध्य सत्ता का स्मरण करते हुए यह परियोजना कार्य उनके श्री चरणों में समर्पित करती हूँ।

दिनांक - 29/4/2015                                        कु0 पार्वती यादव

                                                  (बी0ए0 तृतीय वर्ष)


                                 प्रस्तावना

          भारत के इतिहास में मौर्य साम्राज्य का महत्व बहुत अधिक है। ऐतिहासिक विन्सेण्ट ए0 स्मिथ ने इस साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य विस्तार का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘‘2000 साल से भी अधिक हुए, भारत के प्रथम सम्राट ने उस वैज्ञानिक सीमा को प्राप्त कर लिया जिसके लिए उसके ब्रिटिश उत्तराधिकारी व्यर्थ में आहें भरते रहें और जिसे 16 वीं तथा 17 वीं सदियों के मुगल साम्राटों ने भी कभी पूर्णता के साथ प्राप्त नहीं किया।’’ हिमालय से समुद्र पर्यन्त सहस्र योजन विस्तीर्ण जो पृथ्वी (भारत देश) है, वह एक चक्रवर्ती सामा्रज्य का क्षेत्र है। यह विचार आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में प्रतिपादित किया था और मौर्यों ने इसे क्रियान्वित करने में सफलता प्राप्त की थी। शस्त्र शक्ति और दण्ड नीति के प्रयोग से प्रायः सम्पूर्ण भारत में एक सामा्रज्य की स्थापना कर मौर्य वंश के राजाओं ने अपनी असाधारण शक्ति का उपयोग धर्म द्वारा विश्व की विजय के लिए किया। महान् सम्राटों में चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र राजा अशोक ने देश- देशांतर में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धर्म के प्रचार के लिए जो उ़द्योग किया विश्व के इतिहास में वह वस्तुतः अनुपम है। मौर्य युग को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग मानना सर्वथा समुचित और युक्ति संगत है।
मौर्य साम्राज्य के चक्रवर्ती समा्रट के रूप में अशोक के गौरवपूर्ण इतिहास को क्रमबद्ध एवं विशद् रूप से लिखने का प्रयत्न मैंने इस प्रयोजना कार्य के रूप में एक तुच्छ प्रयास किया है। - म‘ौर्य साम्राज्य का इतिहास’ डाॅ0 विद्यालंकार का प्रथम ग्रंथ तथा ऐसा ही विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कर मैंने अपना यह परियोजना कार्य लिखने का प्र्रयास किया है। मुझे खेद है कि मौर्य वंश के अधिक विद्वानेां को न पढ़ सकी। भविष्य मंे यदि अवसर मिला तो मैं अन्य विद्वानों को भी पढ़कर उनके विचारों का उल्लेख करने का प्रयास अवश्य करूंगी।
इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जब इस विषय पर अनेक ग्रंथ पहले से ही विद्यमान है तो एक नई परियोजना कार्य की आवश्यकता क्यों हुई?
अशोक के अद्वितीय व्यक्तित्व और कृतित्व की व्याख्या में अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं। व्याख्या का आधार ही बदलता, बढ़ता और सुधरता रहा है। अशोक अपनी कहानी स्वयं कहता है उसके लेख पत्थरों पर खुदकर अमिट हो चुके हैं किन्तु इन लेखों का पता एकाएक ही नहीं लगा था। विभिन्न स्थानों और समयों में उसके लेख स्फुट रूप में मिलते रहे हैं। ये लेख अशोक के समय में उन स्थानांे पर खुदवाये गये होंगे। जहां पर घनी बस्तियां थीं। किन्तु अब वहां उजाड़ बियावन जंगल है। जहां इक्के- दुक्के ही कोई आदमी पहुंचता है।
अशोक संबंधी ज्ञान अब एक सौ वर्षों से भी अधिक पुराना हो चुका है। इस काल में इसके लेखों की खोज पाठ और व्याख्या इन तीनों दिशाओं में काफी प्रगति हुई है। इस  प्रगति की कुछ घटनाओं को मैंने अपने इस परियोजना कार्य के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।


दिनांक - 29/4/2015                                                                                        कु0 पार्वती यादव

                                            (बी0ए0 तृतीय वर्ष)









विषय पृ0 क्र0
स्वकथन                                                                          01
भूमिका                                                                           2-3
विषय सूची                                                                        4
अध्याय- 1 मौर्य वंश का उद्भव                                       5 - 10

अध्याय- 2 सम्राट अशोक की पृष्ठभूमि -                        11 - 16

अध्याय- 3  अशोक की नीतियाँ -                                    17 - 26

अध्याय- 4 शासन विषयक नीति
अध्याय- 5 अशोक कालीन सामाजिक नीति
अध्याय - 6 अशोक के उत्कीर्ण लेख
अध्याय-7  अशोक का मूल्यांकन

        निष्कर्ष                                          
        सन्दर्भ ग्रंथ सूची                                      





अध्याय- 1
मौर्य वंश का उद्भव

           मौर्य सम्राटों का काल भारत के इतिहास के सबसे गौरवपूर्ण युगों में गिना जाता है। इस काल में न केवल प्रायः समस्त भारत एक छत्र के नीचे आ गया वरन् उसका विस्तार वर्तमान ईरान की पूर्वी सीमा तक हो गया और उस हिन्दुकुश पर्वत पर मौर्य पताका फहराने लगी जिसे भारत की वैज्ञानिक सीमा समझते हुए भी शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार न कर सके और जहाँ तक वैभवशाली मुगल साम्राज्य का विस्तार भी पूर्ण रूप से कभी न हो सका। सौभाग्यवश इस काल के इतिहास के लिये हमें असाधारण रूप से प्रमाणित और विविधतापूर्ण समकालीन अभिलेख आलेख मिलते हैं।
       अब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि जिस प्रसिद्ध भारतीय राजा का यवन लेखकों ने ‘सैण्ड्रोकोटस’’ नाम से उल्लेख किया है वह ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ ही था।1 चन्द्रगुप्त के दरबार में रहने वाले यवन राजदूत मैगस्थनीज का भारत वृŸाान्त उस काल का बड़ा सजीव चित्र देता है। जिसकी अनेक अंशों में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से पूर्ति होती है। इसी प्रकार अशोक  के शिलाओं और स्तम्भों पर उत्कीर्ण अभिलेख उसके समय की दशा के लिये अकाट्य प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त और भी अनेक ग्रन्थ और अभिलेख मौर्य इतिहास पर प्रकाश डालते हैं।          
        सिकन्दर के प्रयाण के बाद उŸारी भारत की राजनीतिक दशा अत्यन्त अशांतिपूर्ण थी। पूर्व के लोग यदि अष्ट नन्दों के कुशासन से पीड़ित थे तो पश्चिम के निवासी विदेशी आक्रमणकारी के प्रतिनिधियों से ऊब रहे थे। इस विपत्ति से देश की रक्षा करने वाला और म्लेक्षों से उदिक्यमान मही2 को मुक्ति दिलाने वाला चन्द्रगुप्त नामक एक वीर युवक था जो मौर्य वंश में उत्पन्न हुआ था। इसी ने शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।
        भारतीय इतिहास में चैथी सदी ईसा पूर्व का बहुत महत्व है। इस शताब्दी में भारतीय इतिहास को प्रधानतः तीन महान नरेशों ने दिशा प्रदान की। एक महापùनन्द जिसने उत्तर भारत के लघु वैदिक राजवंशों का अंत करके तथा मगध के साम्राज्य को उत्तर भारत के अधिकांश भागों में एवं दक्षिण के कुछ भागों तक विस्तृत करके देश के राजनीतिक मानचित्र को सरल किया। दूसरा सिकन्दर जिसने पùानन्द के कुछ ही समय बाद उत्तरापथ पश्चिमोत्तर भारत वर्ष के लघु राज्यों का अंत करके राजनीतिक सरलीकरण की इस प्रक्रिया को उस देश- प्रदेश में सम्पन्न किया तथा तीसरा चन्द्रगुप्त मौर्य जिसने चाणक्य की सहायता से महापùनन्द और सिकन्दर के काम को पूरा किया और भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रथम बार एक अतिरिक्त भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जिस साम्राज्य की स्थापना की थी वह अचानक मात्र चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आ गया था। जब चाणक्य ने नंद वंश का विनाश करके चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बैठाया तब उसने एक नये वंश की स्थापना जरूर की परन्तु यह एक नये साम्राज्य की स्थापना नहीं थी क्योंकि नन्दों के अधिकार में जितना विशाल साम्राज्य था उसका चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बैठते ही प्राप्त हो गया होगा। वैसे ही जैसे पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ को मारकर मगध का साम्राज्य पाया था, यह ग्रहवर्मा की हत्या हो जाने के बाद हर्ष ने मौखरि साम्राज्य पाया था। संक्षेप में चन्द्रगुप्त मौर्य एक नये वंश का संस्थापक होने के साथ नन्दों का राजनीतिक उत्तराधिकारी भी था। दूसरे, नन्दवंश और चन्द्रगुप्त मौर्य दोनों के ही अभिलेख नहीं मिलते इनका इतिहास साहित्यिक अनुश्रुतियों की सहायता से पुनर्निर्मित करना होता है। इनमें अधिकांश अनुश्रुतियों में नन्द, चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य तीनों की चर्चा है। इस कथा चक्रकों नन्द्र, चाणक्य और चन्द्रगुप्त तीनों की चर्चा है। इस कथाचक्र के ’’नन्द, चाणक्य, चन्द्रगुप्त कथाचक्र कहा जा सकता है। इस दृष्टि से भी नन्दवंश और चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास एक इकाई के रूप में देखा जाना आवश्यक है।’’3 प्राचीन भारतीयों द्वारा लिखित क्रमबद्ध इतिहास के ग्रन्थ यद्यपि आजकल उपलब्ध नहीं है पर ऐसी बहुत सी सामग्री हमें अवश्य प्राप्त है जिसका उपयोग कर भारत का प्राचीन इतिहास तैयार किया जा सकता है। मौर्य वंश के इतिहास की सामग्री विशेष रूप से प्रचुर एवं समृद्ध है। मौर्यों से संबंध रखने वाली ऐतिहासिक अनुश्रुति न केवल पुराणों से संग्रहित है अपितु बौद्ध और जैन वाङ्मय में भी इस वंश के राजाओं का वृŸाान्त विशद रूप से दिया गया है। मौर्य राजा अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और सम्प्रति जैन धर्म का इन दोनों राजाओं ने अपने- अपने धर्म के प्रसार व संवर्द्धन के लिये विशेष तत्परता प्रदर्शित की थी। इसी कारण बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में मौर्य वंश की बहुत सा ऐतिहासिक इतिवृŸा विद्यमान है। मौर्य इतिहास की सामग्री को आठ भागों में बांटा जा सकता है।  ‘‘संस्कृत साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य, प्राचीन ग्रीक और लेटिन साहित्य चीनी और तिब्बत साहित्य और उत्कीर्ण लेख व अन्य अवशेष कौटिल्य साहित्य यद्यपि संस्कृत के अन्तर्गत हैं। पर क्योंकि मौर्य इतिहास के साथ उसका विशेष संबंध है। इसके अतिरिक्त भी अन्य स्त्रोतों को सम्मिलित किया जा सकता है। जिनमें ब्राह्मण ग्रन्थ, क्लासिकल लेखक तथा ईरानी स्त्रोत भी आते हैं।

कौटिल्य अर्थशास्त्र -
मौर्य युग के इतिहास के लिये ‘कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्’ सबसे अधिक महत्वपूर्ण गन्थ है। चन्द्रगुप्त के समय की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दशा पर प्रकाश डालने और उस काल की शासन पद्धति का निरूपण करने के लिये हमने प्रधानतया इसी ग्रन्थ का निरूपण किया है। आचार्य चाणक्य या कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु तथा मन्त्री पुरोहित थे। प्राचीन ऐतिहासिक अनुश्रुतियों के अनुसार उन्होंने ही नवनन्दों का विनाश कर चन्द्रगुप्त को मगध के राजसिंहासन पर आरूढ़ कराया था। उनके अनेक नाम थे। ‘‘हेमचन्द्र ने अभिधान चिन्तामणी में उनके निम्नलिखित नाम उल्लेखित किये हैं - वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुतल, चाणक्य, विष्णुगुप्त, अंगुल आदि। इस प्रसिद्ध आचार्य का व्यक्तिगत नाम विष्णुगुप्त था व कुŸाल गौत्र में उत्पन्न हुए थे अतः उन्हें कौटिल्य कहा जाता था।4

मौर्यों की जाति -
                 ‘मौर्यों’ की जाति के प्रश्न पर प्राचीन इतिहास भारतीय साहित्य में अनेक अनुश्रुतियाँ मिलती है। और आधुनिक विद्वानों ने अनेक आधार पर विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया है। इन अनुश्रुतियों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- एक तो वे जो अपेक्षया प्राचीन हैं और दूसरे वे जिनका विकास परवर्ती युग में हुआ।’’ मौर्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा के विषय में पौराणिक साक्ष्य भी पर्याप्त उपयोगी हैं। ग्रन्थों में शिशुनाग वंश के उपरान्त नन्दों का वर्णन है और उन्हें शुद्ध तथा आध्यात्मिक बताया गया है। इसके उपरान्त ग्रन्थों में कहा गया है कि नवनन्दों का विनाश कौटिल्य नामक ब्राह्मण करेगा जो चन्द्रगुप्त को राजपद पर अभिषिक्त करेगा। इस वर्णन से स्पष्ट है कि पुराणकारों को केवल नन्दों के नीच कुलोत्पन्न होने का ज्ञान था। वे मौर्य वंश नरेशों को इस कोटि में नहीं रखते उल्टे शूद्र नंदों के विनाश एवं चन्द्रगुप्त के अभिषेक की चर्चा करके ये यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि चन्द्रगुप्त स्वयं शूद्र जातीय नहीं था।
          ‘‘मौर्य के मूलतः क्षत्रीय होने के सबसे प्रबल प्रमाण प्राचीन बौद्ध साहित्य में सुरक्षित हैं। सामाजिक मौर्य वंश संस्थापक साम्राज्यिक मौर्य वंश संस्थापक चन्द्रगुप्त पप्पलिवन या मोरिय नगर की मोरिय गण जाति में ही उत्पन्न हुआ था। महावंश में इसका स्पष्टतः उल्लेखित है।’’ अपेक्षया परवर्ती ग्रन्थ महाबोधिवंश भी चन्द्रगुप्त को मौर्य जाति का क्षत्रीय तथा राजाओं के कुल में उत्पन्न कहता है। ‘दिव्यावदान’5 में बिन्दुसार और अशोक को क्षत्रीय कहा गया है इसलिये मुकर्जी6 , लाहा7, रायचैधरी, चटर्जी8 अन्य अनेक आधुनिक विद्वान् मौर्यों को पिप्पलिवन को मोरिय नामक क्षत्रीय जाति का ही सदस्य मानते हैं। चैथी सदी ई0पू0 तक यह जाति अपना महत्व मगध साम्राज्य में विलीन होकर खो चुकी थी। मोरिय जाति का यह नाम लगभग ‘टाटमिस्टिवु’ था और मयूर या मोर शब्द से सम्भावित था। बुद्धघोष सम्भवतः सबसे प्रथम लेखक है जो यह बताता है कि मौर्यों का यह नाम इसलिये पड़ा क्योंकि उनके राज्य में मयूरों की बहुतायत थी। कम से कम यह कल्पना करने के लिये कुछ पुरातात्विक आधार उपलब्ध हैं कि मौर्य नरेश अपने वंश के नाम का कुछ सम्बन्ध मोर पक्षियों से मानते थे। लोरिया नन्दनगढ़ में अशोकस्तम्भ में निचले सिरे पर मोर की करीब 4 इंच लम्बी मूर्ति तक्षित है।    अनवैडेल  का मत है कि यह चित्र इस बात का द्योतक है कि मोर मौर्यों का वंश का चिन्ह था। (पेज नं0 25.3) एरियन9 के अनुसार ‘‘मौर्याें के पाटलिपुत्र स्थित राज प्रसाद के उद्यान में मोर भी पाले जाते थे।

मौर्यों का आदि निवास स्थल -
 मौर्यों का उदय जिस प्रदेश में हुआ यह समस्या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा की समस्या से घनिष्ठतः सम्बन्धित है। इस विषय में सर्वप्रथम स्पूनर के10 इस मत की चर्चा की जा सकती है कि मौर्य नरेश पारसी थे। इस अनुमान का आधार मौर्यकालीन भारतीय संस्कृति पर ईरानी प्रभाव है। परन्तु इस प्रभाव की सीमा को स्पूनर ने बहुत बड़ाकर बताया है। दूसरे इसकी व्याख्या मौर्यकालीन भारत के साथ ईरान के घनिष्ठ सम्बन्ध से अनायास हो जाती है। इसके लिये मौर्यों का ईरानी मानना आवश्यक नहीं है। इसलिये स्पूनर के इस मत का कीथ, स्मिथ, टोमस आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी विरोध किया है।11
          एच सी सेठ का मत है कि चन्द्रगुप्त मौर्य उत्तरापथ के गान्धार प्रदेश का निवासी है। सेठ ने मौर्यों का गान्धार से सम्बन्ध जोड़ने के लिये तर्क रखा है कि राजतरंगिणी में शकुनी को अशोक का प्रपितामह बताया गया है और महाभारत से जिसमें शकुनी को गांधार का नरेशों में प्रचलित था लेकिन शकुनी नामक भारत के अन्य वंशों में भी प्रचलित था। उदाहरणतः वायु पुराण में इस नाम का राजा विधेय को राज सूची में परिगणित है। स्मरणीय है कि मुद्राराक्षस में गांधारों को चन्द्रगुप्त मौर्य के विरोधियों में परिगणित किया गया है। उसके समर्थकों में नहीं।
        सेठ के समान बी0एम0 बरुआ12 भी मौर्यों को मूलतः पश्चिमोŸार प्रदेश का निवासी माना था। उनके अनुसार वह स्वयं तक्षशिला का नही ंतो गांधार का निवासी तो अवश्य ही था। बरुआ ने ध्यान दिलाया है कि चन्द्रगुप्त की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। उसके समर्थक अधिकांशतः पश्चिमोŸार प्रदेश के थे। अशोक के कुछ लिपिक उत्तरापथ की खरोष्ठी लिपि के अभ्यस्त थे और उसके उसकी कला का ईरानी कला परम्परा में निष्ष्णात  थे। लेकिन ये तर्क स्पष्टतः अत्यन्त दुर्बल है क्योंकि जिन साक्ष्यों से चन्द्रगुप्त मौर्य का तक्षशिला से सम्बन्ध ज्ञात होता है वे ही उसे मूलतः पूर्वी प्रदेश का निवासी बताते हैं। मौर्य अभिलेखों और कला पर ईरानी प्रभाव तो मौर्यों का पश्चिमोŸार प्रदेश से सम्बन्ध सिद्ध करने के लिये अपर्याप्त हैं ही।’’    वस्तुतः मौर्य का सम्बन्ध पूर्वी भारत के साथ था। हमारे सभी साक्ष्य जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण इस विषय में एकमत हैं। इनमें मौर्यों को या तो नन्दवंश से संबंधित बताया गया है या पिप्पलिवन के पास निवास करने वाले मौर्य जाति में उत्पन्न या उन मयूर पोषकों का एक परिवार जो नन्दों के राज्य में रहते थे।13

मौर्य साम्राज्य की स्थापना का महत्व -
  डाॅ0 राधाकुमुद मुखर्जी का कथन है कि - ‘‘मौर्य साम्राज्य का आगमन भारतीय इतिहास की अपूर्व घटना है। जिस कठिन समय में इस वंश ने अपनी नींव को दृढ़ किया उस समय को देखकर तो सचमुच इसका स्थान बहुत ऊँचा उठ जाता है।’’   समय संकट का था। सिकंदर का आक्रमण भारत पर हो चुका था। 327- 325 ई0पू0 तक पंजाब का भाग सिकन्दर के हाथ आ चुका था। इस प्रकार मौर्य वंश को अपनी नींव सुदृढ़ करने में भारी हिम्मत से काम लेना पड़ा। भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य का विशेष महत्व है। इसकी स्थापना के साथ ही हम इतिहास की सुदृढ़ धरा पर अवतरित होते हैं। इसके पूर्व किसी निश्चित् तिथि के अभाव में भारतीय इतिहास का ज्ञान बहुत कुछ अस्पष्ट रहा है। परन्तु मौर्योैं  के शासनकाल में उसमें अपेक्षाकृत् एक निश्चित् तिथिक्रम का प्रारंभ होता है। राजनीतिक एकीकरण का जो कार्य हर्यक वंशीय नरेशों ने प्रारंभ किया उसे मौर्यों ने पूर्ण किया। इसके समय में भारत वर्ष का अधिकांश भाग एक सुदृढ़ राजनीतिक सूत्र से बंध गया।14
डाॅ0 बी0ए0 स्मिथ का कथन है- ‘‘मौर्याें के आगमन के साथ ही इतिहास .क्षेत्र में भी प्रकाश की ज्वलन्त किरण फैलने लगती है। कालक्रम भी प्रायः सुस्पष्ट होने लगा। भारत के छोटे- छोटे टुकड़ो को मिलाकर एक विशाल साम्राज्य अपनी सŸाा को स्थिर करने लगा है। इस साम्राज्य के स्वामी राजा न होकर सम्राट की पदवी से विभूषित हुए। इन सम्राटों का व्यक्तित्व महान् था। समय की धुन ने उसे भले ही धुंधला बना दिया हो किन्तु उन्हांेंने.. सारे संसार में फैलने वाले धर्मों की सहायता की जिनका प्रभाव आज तक अनुभव किया जा रहा है। भारत ने जो बहुत समय तक अकेला था। विदेशों से अपने नाते केवल मौर्य वंश के कारण ही जोड़े।’’ इस प्रकार इस काल में न केवल प्रायः समस्त भारत एक छत्र के नीचे आ गया वरन् इसका विस्तार वर्तमान ईरान की पूर्वी सीमा तक हो गया और उस हिन्दुकुश पर्वत पर मौर्य पताका फहराने लगी जिसे वैज्ञानिक सीमा समझते हुए शक्तिशाली ब्रिटिश शासक सर न कर सके और जहाँ तक वैभवशाली मुगल साम्राज्य का विस्तार भी पूर्णरूप से कभी न हो सका।15

     सन्दर्भ सूची

1. सर विलियम जोन्स ने सबसे पहले तादात्म्य किया था। ।ेपंजपब त्मेमंतबीमे 4 पृ0 10-11
2. मुद्रा राक्षस, 7,19
3. गोयल, श्रीराम - नन्द- मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृ0 1
4. ‘इयमिदानी आचार्य विष्णु गुप्तेन मौर्याये षड्भिः श्लोकसहस्त्रेः, उच्छवास 8
5. दिव्यावदान- द्वितीय शती ई0 का माना जाता है।
6. चटर्जी बी0सी0 लाहा वाॅल्यूम 1 पृ0 596
मुकर्जी च0मौ0 का पृ0 33
7. चटर्जी बी0सी0 लाहा वाॅल्यूम 1 पृ0 596,  मुकर्जी, च0 मौ0 का0 पृ0 33
8. चटर्जी बी0सी0 लाहा वाॅल्यूम 1 पृ0 596,  मुकर्जी, च0 मौ0 का0 पृ0 33
9. एरियन- इण्डिका 5,6,7 इन्वेशन बाई एलेक्जेण्डर, पृ0 14
10. स्पूनर, जे0आर0ए0एस0 पृ0 63- 89
11. स्मिथ, जे आर0 ए एस पृ0 800- 802, कीथ, वही पृ0 138 से 143, टाॅमस, वही पृ0 362- 366
12. बरुआ, बी0एस0-आर सी0 10, पृ0 34 अ0
13. गोयल, श्रीराम नन्द मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृ0 83-96
14. पाण्डे विमल चन्द्र- प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास पृ0 243
15. भार्गव पुरुषोŸाम लाल- प्राचीन भारत का इतिहास, पृ0 180  

अध्याय - 2
सम्राट अशोक की पृष्ठभूमि -  

बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा। वह भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विख्यात शासक माना जाता है, जिसने लोगों के शरीर पर नहीं, वरन् हृदय पर शासन किया और अपने कार्यों से इतिहास में अमर हो गया। प्रो0 नीलकण्ठ शास्त्री ने अशोक की प्रशंसा में लिखा है- ‘‘वह संसार के सबसे बुद्धिमान शासकों में स्थान प्राप्त करने का उचित अधिकारी है और उसके नेतृत्व में भारत को उस समय के सभ्य देशों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाने लगा।1 डाॅ0 आर0सी0 मजूमदार के शब्दों में - ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हुआ, जो बिन्दुसार के इस अमर पुत्र से बढ़कर हमारे साथ परिचित हो अथवा जिसने अपने उच्चतम व्यक्तित्व द्वारा हमें उससे बढ़कर प्रभावित किया हो।2 प्रत्येक युग और प्रत्येक राष्ट्र ऐसे राजा को जन्म नहीं दे सकता। अशोक की क्षमता आज तक भी विश्व इतिहास में किसी अन्य से नहीं की जा सकती। वह सम्राटों में महानतम सम्राट था। अशोक को एक विशाल एवं सुसंगठित राज्य प्राप्त हुआ था, परन्तु उसने शासन प्रबन्ध में कुछ और सुधार करके उसे सुदृढ़ बनाया। उस समय में धर्म, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति हुई। अशोक के शासन काल के बारे में हमें उसके शिलालेखों, स्तम्भलेखों, गुफालेखों से तथा बौद्ध, जैन, चीनी और तिब्बती साहित्य से विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। एच0जी0वेल्स ने लिखा है- ‘‘इतिहास के पृष्ठों को रंगने वाले सहस्रों राजाओं के नामों के मध्य अशोक का नाम सर्वोपरि नक्षत्र के समान दैदीप्यमान है।3

अशोक का प्रारंभिक जीवन और परिवार -
अशोक से संबंधित साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्त्रोतों में उसके तीन नाम मिलते हैं- 1. अशोक, 2. देवानां प्रिय प्रियदर्शी एवं 3. राजा। केवल मास्की के लघु शिलालेख में उसे अशोक कहा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी लेखों में उसे प्रियदर्शी दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका प्राथमिक नाम अशोक था। प्रियदर्शी तथा प्रियदर्शन उसकी उपलब्धियाँ थीं। दिव्यावदान से पता चलता है कि जब बिन्दुसार के घर पर पुत्र का जन्म हुआ, तो उसकी पत्नी ने कहा- ‘‘इस बच्चे के उत्पन्न होने से मैं ‘अशोक’ हो गयी हूँ अतः इसका नाम अशोक रखा जाए।’’ ‘सिंहली ग्रन्थ दीपवंश’ में उसके नाम ‘प्रियदर्शी’ तथा प्रियदर्शन दिये गये।4 बिन्दुसार ने अपनी पत्नि की इच्छा को पूर्ण करने के लिये नवजात शिशु का नाम अशोक रख दिया।
अशोक के जन्म के बारे में कोई निश्चित् जानकारी प्राप्त नहीं होती। कुछ इतिहासकार 294 ई0 पू0 को उसकी जन्म तिथि मानते हैं, जबकि डाॅ0 राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार उसका जन्म 304 ई0 पू0 में हुआ था। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अनुसार अशोक की माता नाम सुभद्रोगी था। वह चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी, परन्तु महाबोधि वंश  में उसकी माता का नाम धर्मा (धम्म) बताया गया है, जो एक क्षत्रीय की पुत्री थी। महावंश तथा दीपवंश के अनुसार बिन्दुसार के 16 रानियाँ थीं जिसमें 10 पुत्र उत्पन्न हुए थे। उसमें सुसीम अथवा सुमन सबसे बड़े थे।
       अशोक की अनेक पत्नियों की भी जानकारी मिलती है। उसकी पाँच पत्नियों के नाम मिलते हैं- देवी, असन्धिमित्रा, तिष्यरक्षिता, पùावती एवं कारूवाकी। उसके चार पुत्रों में बारे में जानकारी मिलती है जिनके नाम महेन्द्र, तीवर, कुणाल तथा जालौक थे। अशोक ने अपने इन चारों पुत्रों को विभिन्न प्रान्तों का गवर्नर नियुक्त कर दिया था। अशोक के दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थी, जिनके नाम संघमित्रा एवं चारूमती थे।
     
राजकुमार के रूप में -
अशोक की बाल्यावस्था के बारे में उसके शिलालेखों एवं जनश्रुतियों से कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती, परन्तु यह निश्चित् है कि वह अपने अन्य भाईयों से अधिक वीर था। बिन्दुसार ने उसे सर्वप्रथम पश्चिमी प्रान्त का कुमार  नियुक्त किया था। अशोक ने इस पद पर सफलतापूर्वक कार्य किया। उसकी इस योग्यता से प्रभावित होकर बिन्दुसार ने उसे तक्षशिला का कुमार बनाकर भेजा था। इसका कारण यह था कि उस प्रान्त के भ्रष्ठ राज्याधिकारियों के शोषण के विरुद्ध जनता ने विद्रोह कर दिया था। वह विद्रोह का दमन कर शान्ति व्यवस्था स्थापित करने में सफल हुआ । इसके पश्चात् अशोक को तक्षशिला के कुमार के पद पर नियुक्त कर दिया गया।
      ‘‘अतः यह मानना असंगत नहीं होगा कि तक्षशिला से प्राप्त अरमाई भाषा का यह लेख उस काल के साथ संबंध रखता है, जबकि अशोक (प्रियदर्शी) तक्षशिला का शासक था। संभवतः ‘अशोक’ पहले तक्षशिला का ‘कुमार’ रहा और बाद में उज्जैन का इसकी पुष्टि महावंश से होती है।5

उत्तराधिकार संघर्ष -
बिन्दुसार सुसीम को अधिक स्नेह करता था एवं उसे उत्तराधिकारी बनाना  चाहता था, अर्थात् अशोक युवराज नहीं था। अतः राज्य प्राप्ति के लिये राजकुमारों में संघर्ष हुआ। बौद्ध ग्रन्थों महावंश तथा दीपवंश  के अनुसार बिन्दुसार के 16 रानियाँ तथा 10 पुत्र थे। उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन के लिये उसके पुत्रों में संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में अशोक ने अपने 99 भाईयों का वध कर दिया और राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसका केवल एक भाई तिष्य जीवित रहा। महावंश तथा महाबौधि वंश भी उक्त कथन की पुष्टि करता है। तिब्बती लेखक तारानाथ  के अनुसार भी बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारी संघर्ष हुआ था। जिसमें अशोक को सफलता प्राप्त हुई थी। डाॅ0 बी0 ए0 स्मिथ एवं डाॅ0 राधाकुमुद मुकर्जी अशोक द्वारा 99 भाईयों का वध किये जाने की कथा को मनगढ़न्त मानते हैं। डाॅ0 राधाकुमुद मुकर्जी ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि ‘‘वे बौद्ध लोग उसके चरित्र को अपने धर्म की शोभा बढ़ाने के लिये चित्रित करना चाहते थे और बताना चाहते थे कि उनका धर्म साधारण धातु को सोने में चण्ड अशोक को धर्म में तथा अत्याचार के एक राक्षस को सबसे सादा मनुष्य में बदल सकता था।6 अशोक शिलालेखों से भी इस कथा की पुष्टि नहीं होती है। इसके विपरीत अशोक के शिलालेख 5 से मालूम होता है कि उसके राज्य के 13 वें वर्ष में भी उसके कई भाई तथा बहनें जीवित थीं और सम्राट का उनके प्रति अत्यन्त उदारतापूर्ण एवं स्नेह पूर्ण व्यवहार था। चाहे निन्यानवे भाईयों को हत्या की बात तथ्यपूर्ण न हो फिर भी यह माना जा सकता है कि अशोक को सिंहासन प्राप्ति के लिये संघर्ष अवश्य करना पड़ा और इस संघर्ष में उसका भाई सुसीम पराजित हुआ तथा मारा गया। ‘‘इसकी पुष्टि बौद्ध अनुश्रुति दीपवंश से होती है।7


राज्याभिषेक -
अशोक 273 ई0पू0 में मगध साम्राज्य का शासक बना। परन्तु उसका राज्याभिषेक इसके चार वर्ष पश्चात् 269 ई0 पू0  में हुआ था। महावंश  के अनुसार  ‘‘जब अशोक ने राज्य पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया था। उसके चार वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में उसका राज्याभिषेक हुआ और यह अभिषेक महात्मा बुद्ध के निर्वाण के 218 वर्ष बाद हुआ था।’’ राज्य प्राप्ति और राज्याभिषेक में यह जो चार वर्ष का अन्तर है उसका कारण संभवतः यही था कि अभी अशोक की स्थिति सुरक्षित नहीं हो पाई थी। अपने भाईयों के विरुद्ध उसका संघर्ष अभी जारी था और राज्य में अनेक ऐसे अमात्य व अन्य वर्ग थे जो अशोक के विरोधी थे। तभी चार वर्ष के निरंतर संघर्ष के पश्चात् जब अशोक की स्थिति सर्वथा सुरक्षित हो गयी तभी उसके राज्याभिषेक का आयोजन किया गया था। अशोक ने अपने धर्मलिपियों में राज्याभिषेक के वर्ष का उल्लेख किया है। राज्य प्राप्ति के वर्ष का नहीं। ‘‘सडुवी सतिवस अभिसितेन में इये धंमलिपि लिखा पिता।’’ शड्विंशति वर्षाभिषिक्तेन मया इयं धर्मलिपिः लेखिता।।’’8  इसका अर्थ है 26 वर्ष से अभिषिक्त मुझ द्वारा यह धर्मलिपि लिखवाई गयी।
     इसी शैली में अशोक ने किसी धर्म लिपि को अपने अभिषेक के दस वर्ष में लिखित कहा है किसी को बारहवें वर्ष में और किसी अन्य वर्ष में पर सर्वत्र अभिषेक के बाद बीते हुए वर्षों का ही उल्लेख किया गया। इसे दृष्टि में रखकर अनेक विद्वानों ने लंका दीप के महावंशों आदि बौद्धग्रन्थों के इस कथन को विश्वसनीय माना है कि अशोक का राज्याभिषेक राज्य की प्राप्ति के चार साल पश्चात् हुआ था। स्मिथ ने लिखा है - ‘‘तथापि यह संभव है कि अंतरीय इतिवृŸा जिसके अनुसार अशोक और उसके सबसे बड़े भाई सुसीम में राज्य के उŸाराधिकारी के संबंध मेें परस्पर झगड़ा हुआ था, वास्तविक घटना पर आश्रित हो यह वृŸाान्त सिंहली भिक्षुओं द्वारा उल्लेखित कथाओं की अपेक्षा अधिक ऐतिहासिक प्रतीत होता है।9 ‘‘श्री भण्डारकर भी महावंशों की कथा को विश्वसनीय नहीं मानते।
       अतः 269 ई0 पू0 तक अशोक ने अपनी स्थिति सुदृढ़ समझी और औपचारिक रूप से राज्याभिषेक करवाया।

राज्यविस्तार -
राजा अशोक के संबंध रखने वाली घटनाओं का हमें अधिक ज्ञान नहीं है। इसका कारण यह है कि दिव्यावदान, महावंशों आदि जिन ग्रन्थों में अशोक के जीवन वृŸा का विशद् रूप से विवरण मिलता है उनकी रचना बौद्ध धर्म को दृष्टि में रखकर की गयी थी। ऐतिहासिक साधनों द्वारा अशोक के शासन और राज्यविस्तार आदि के विषय में कतिपय तथ्य ज्ञात हो चुके हैं।
      राजा बिन्दुसार से अशोक को एक विशाल साम्राज्य उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। यह साम्राज्य पूर्व बंगाल की खाड़ी से लगाकर पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत के परे तक विस्तृत था। इसके उत्तर में हिमालय की दुर्गम पर्वत श्रंखलाएँ थीं। दक्षिण में वर्तमान आन्ध्रप्रदेश और उसके भी दक्षिण में स्थित अनेक प्रदेश । इस साम्राज्य के अन्तर्गत थे। अशोक ने इस साम्राज्य को और भी विस्तृत किया। राज्याभिषेक को हुए आठ वर्ष व्यतीत हो जाने पर 261 से 60 ई0 पू0 में अशोक ने कलिंग देश पर आक्रमण किया  और उसे जीत कर अपने अधीन कर लिया। कलिंग देश की स्थिति बंगाल की खाड़ी के साथ गोदावरी और महानदी के बीच के प्रदेशों में थी। इसी को आजकल उड़ीसा कहा जाता है। कलिंग उस युग के अत्यन्त शक्तिशाली राज्यों में एक था। ग्रीक लेखक पिलानी के अनुसार कलिंग लोगों का निवास समुद्र के समीप था और उनकी राजधानी पथलिस कहाती थी। कलिंग की सैन्यशक्ति के संबंध में पिलानी द्वारा लिखित यह विवरण संभवतः मैगस्थनीज की यात्रा वृŸाान्त पर आधारित है। कलिंग को मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित करने का कार्य अशोक द्वारा किया गया। ‘‘चतुर्थ अभिलेखों के तेरहवें लेख’’  में अशोक ने कलिंग विजय और उसके परिणाम स्वरूप युद्धों के प्रति ग्लानि की भावना को प्रकट किया है। ‘‘अष्टवर्षाभिषिक्तं देवानप्रिय प्रियदर्शी राजा ने कलिंग की विजय की है।10 वहाँ डेढ़ लाख मनुष्यों का अपहरण हुआ। वहाँ सौ सहस्र (एक लाख ) मारे गये। उससे भी अधिक मरे जब कोई अविजित देश जीता जाता है। तब लोग का जो वध, मरण और अपहरण होता है वह देवानांप्रिय के लिये अवश्य वेदना का कारण होता है और साथ ही गंभीर बात की। कलिंग को प्राप्त करने में जितने मनुष्य मारे गये हैं, मरे हैं या अपहरण किये हैं, उनका मौर्यों या हजारवां भाग भी देवानांप्रिय के लिये गंभीर है।’’
        अशोक ने अपनी धर्म लिपियों में कलिंग शब्द का प्रयोग बहुवचन कलिंगेषु आदि में किया है। भारत के प्राचीन जनपद के लिये भी प्राचीन साहित्य में बहुवचन ही प्रयुक्त किया गया है। इसकी पुष्टि पाणिनी की अष्टाध्यायी और उसकी टीकाओं में अंग- बंग आदि बहुवचनात्मक शब्दों द्वारा अंग बंग आदि ही अभिप्रेरित हैं।
        जौनागढ़ के शिलालेख पर उत्कीर्ण अतिरिक्त लेख समापा के महामात्यों को सम्बोधित है। नये जीते हुए कलिंग के संबंध में अपनी शासन नीति को अशोक ने इस प्रकार प्रकट किया है-  ‘‘सब मनुष्य मेरी प्रजा है। जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिये यह चाहता हूँ कि वे सब हित और सुख ऐहलौकिक और पारलौकिक प्राप्त करे, उसी प्रकार मैं सब मनुष्यों के लिये भी कामना करता हूँ।11 जिस कलिंग की विजय करने के लिये अशोक ने लाखों मनुष्यों का वध किया उसके सुशासन के लिये वह अत्यन्त उत्सुक था। वहाँ के निवासियों के प्रति संतान की भावना रखता था और उनके हित तथा सुख के लिये प्रयत्नशील था। यह तो स्पष्ट है कि कलिंग की विजय के पश्चात् अशोक ने किसी अन्य प्रदेश पर आक्रमण नहीं किया और शस्त्र विजय को हेय मानकर धर्म विजय के लिये उद्योग करना प्रारंभ किया। राजतरंगिणी से सूचित होता है कि मौर्य राजाओं में सबसे पूर्व अशोक ने ही कश्मीर का शासन किया था।12 वह लिखा है इसके पश्चात् अशोक नामक निरपति ने वसुन्धरा का शासन किया। यह राजा बहुत शांत और सत्यसन्ध था और जिनके धर्म का अनुरक्षण करने वाला था। इसमें वितस्ता (जेहलम) नदी के तटों को स्तूप मण्डलों द्वारा आच्छादित कर दिया और धर्मार्थ अनेक विहारों का निर्माण कराया। इसमें श्रीनगरी नामक नगरी को बसाया जिससे लक्ष्मी से युक्त 96 लाख घर थे। श्री विजयेश के टूटे- फूटे दुर्ग को हटाकर उसके स्थान पर इस राजा ने सब दोषों से रहित विशुद्ध पत्थरों के एक विशाल दुर्ग का निर्माण कराया और समीप ही एक विशाल प्रासाद बनवाया जिसका नाम अशोकेश्वर रखा गया। राजतरंगिणी इस तथ्य की स्पष्ट रूप से सूचित करता है कि कश्मीर का शासक यह अशोक वही था जिसने कि बौद्ध धर्म को अपनाकर सैकड़ों स्तूपों और विहारांे का निर्माण करवाया था। कल्हण के अनुसार कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के निर्माण का श्रेय अशोक को ही प्राप्त है। बौद्ध अनुश्रुतियों में अशोक द्वारा नेपाल और खास्य की विजय का भी उल्लेख है। यह खास्य और दिव्यावदान का स्वश देश सम्भवतः एक ही प्रदेश के सूचक हैं। कलिंग विजय पूर्व अशोक ने जिन मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित किया था उनके संबंध में कतिपय निर्देश प्राचीन ग्रन्थों में विद्यमान है। यद्यपि इनके आधार पर अशोक के राज्यविस्तार का स्पष्ट व क्रमिक विवरण हमारे सम्मुख प्रस्तुत नहीं होता पर ये यह निर्दिष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि कलिंग विजय अशोक की अंतिम विजय अवश्य थी पर वह उसकी प्रथम विजय नहीं थी।

                                       सन्दर्भ सूची

1. नीलकण्ठ  शास्त्री के0ए0: एज आॅफ द नन्दाज एण्ड मौर्याज, पृ0 203
2. मजूमदार आर0सी0 (डाॅ): एन्शेण्ट इण्डिया पृ0 108
3. वेल्स, एच0जी0 दी आउट.





                     

                      अध्याय - 3
अशोक की नीतियाँ -

अशोक की धर्म नीति
धर्म का अभिप्राय -
  अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक स्तर को उन्नत बनाने के लिये अपने अभिलेखों द्वारा कुछ नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार किया। जिन्हें सामूहिक रूप से अशोक का धर्म अथवा धम्म कहा जाता है। डाॅ0 भण्डारकर1 का मानना है कि महात्मा बुद्ध ने गृहस्थ उपासकों के लिये जो नियम बनाये थे अशोक ने बौद्ध धर्म के उन्हीं सिद्धान्तों का प्रचार किया। डाॅ0 भण्डारकर के अनुसार - ‘‘अशोक के धर्म का संक्षिप्त तथा आधार बौद्ध धर्म ही था। परन्तु थाॅमस तथा डाॅ0 मुकुर जी2 जैसे विद्वान् उनके मत से सहमत नहीं है। उनका मानना है कि अशोक के अभिलेखों के द्वारा प्रजा में जिस धर्म का प्रचार किया वह बौद्ध धर्म ही नहीं था क्योंकि इसमें बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्यों अष्टांगिक मार्ग एवं निर्वाण आदि सिद्धान्तों का उल्लेख नहीं मिलता। तथापि यह सत्य हैै कि अशोक का व्यक्तित्व धर्म बौद्ध धर्म था। शिलालेख 12 में कहा गया है- ‘‘यह धर्म सभी धर्मों का सार है। डाॅ0 रोमिला थापर3 के शब्दों में धम्म अशोक का अपना आविष्कार था। चाहे उसने बौद्ध धर्म तथा हिन्दु धर्म के सिद्धान्तों को ग्रहण किये हों, परन्तु यह संक्षेप में राजा की ओर से लोगों के लिये व्यावहारिक तथा सुविधापूर्ण जीवन बिताने के ढंग तथा नैतिकता का पालन करने का आदेश था। अशोक के अभिलेखों में धम्म शब्द का प्रयोग बार- बार हुआ है परन्तु इस धम्म का वास्तविक अर्थ क्या है इस बात पर विद्वानांे में बड़ा मतभेद है। यदि हम अशोक के अभिलेखों में उल्लेखित धम्म सम्बन्धी समस्त बातों का निरूपण करें तो उसमें धम्म का स्वरूप समझाना सरल हो जाएगा।
       धम्म संस्कृत के धर्म का ही रूपान्तर है। परन्तु अशोक के लिये इस शब्द का विशेष महत्व है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो यही धम्म तथा उसका प्रचार अशोक के विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का सर्वप्रधान कारण है। अपने दूसरे स्तम्भलेख में अशोक ने स्वयं प्रश्न करता है- कियं चु धम्मे (धर्म क्या है) इसका उत्तर वह दूसरे तथा सातवें स्तम्भलेखों में स्वतः देता है वह हमें उन गुणों को गिनता है जो धम्म का निर्माण करते हैं उन्हें हम इस प्रकार रख सकते हैं। ‘‘अपासिनवे बहुकयाने दयादाने सचेसाचये माददे साधवे च।4
अर्थात् धम्म
1. अल्प पाप (अपासिनवे) है।
2. अत्यधिक कल्याण (बहुकल्यानि) है।
3. दया है।
4. दान है।
5. सत्यवादिता है।
6. पवित्रता (सोचये) है।
7. मृदुता (मादवे) है।
8. साधुता (साधवे) है।
  इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिये निम्नलिखित बातें आवश्यक बताई गई हैं-
1. अनारम्भो प्राणानाम् (प्राणियों की हत्या न करना)।
2. अविहिंसा भूतानाम् (प्राणियों को क्षति न पहुँचाना)।
3. मातृ पितृ सुश्रुता (माता- पिता की सेवा करना)।
4. थेर सुश्रुसा (वृद्धों की सेवा करना)।
5. गुरुणाम् अपचिति (गुरुजनों का सम्मान करना)।
6. मित संस्तुत  नाटिकानो बहमण समणानां दानं संपतिपति (मित्रों, परिचितों, ब्राह्मणों तथा श्रमणों के साथ- साथ अच्छा व्यवहार करना)।
7. दास- भतकुम्हि सम्म प्रति पति (दासी एवं दास नौकरों के साथ अच्छा बर्ताव करना)
8. अपव्ययता (अल्प व्यय)।
9. अप भाण्डता (अल्प संचय)।

    ये धम्म के विधायक पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के धम्म का एक निषेधात्मक पक्ष भी है। जिसके अन्तर्गत कुछ दुर्गुणों की गणना की गई है। ये दुर्गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं। इन्हें आसिनव के कारण सद्गुणों में विचलित हो जाता है। उसके अनुसार निम्नलिखित दुर्गुणों से आसिनव हो जाते हैं -
1. चंडिये अर्थात् प्रचण्डता।
2. मिठुलिये अर्थात् निष्ठुरता।
3. क्रोधे अर्थात् क्रोध।
4. मनो अर्थात् घमण्ड।
5. इस्सा अर्थात् ईष्र्या।
        अतः धम्म का पूर्ण परिपालन तभी सम्भव हो सकता है। जब मनुष्य उसके गुणों के साथ ही साथ इन विकारों से भी अपने को मुक्त रखे। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य सदा आत्मनिरीक्षण करता रहे ताकि उसे अधः पतन के मार्ग में अग्रसर करने वाली बुराईयों का ज्ञान हो सके। धम्म की भावना का विकास हो सकता है। धम्म के मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति स्वर्ग की प्राप्ति करता है और उसे इहलोक तथा परलोक दोनों में पुण्य की प्राप्ति होती है। अशोक के धम्म की शिलालेखों के माध्यम से बताया जा सकता है।

प्रथम शिलालेख -
यह धर्म लिपि देवताओं के प्रियदर्शी राजा ने लिखवायी। यहाँ (हमारे साम्राज्य में) किसी जीव को मारकर यज्ञ में बलि न दी जाये। कोई समाज (उत्सव) न किया जाए। देवानां प्रियदर्श राजा समाज (उत्सव समारोह) में बहुत से दोष देखते हैं। फिर भी कुछ समाज राजा के मत में हितकारक (अच्छे) हैं। पहले प्रियदर्शी राजा को पाठशाला में प्रतिदिन कई लाख प्राणी सूप (मांस रस) बनाने के लिये मारे जाते थे। किन्तु जब यह धर्म लिपि दिखायी गयी केवल तीन ही प्राणी मारे जाते हैं। दो मोर और एक हीरण। यह हीरण भी निश्चित् रूप से नहीं। फिर आगे चलकर ये तीन प्राणी भी नहीं मारे जाएंगे। इस अभिलेख में प्राचीन काल के उत्सव समारोह के दोषों का वर्णन है कि उनमें मनोरंजन के लिये नृत्य, गान, विलास, हास तथा प्राणी हत्या तक होती थी, अशोक ने रोक दिया। पुनः अपनी पाकशाला की विशाल हत्या को भी उसने सीमित ही नहीं किया आगे रोकने की प्रतिज्ञा भी की।

2. द्वितीय शिलालेख -
                     देवानां प्रियदर्शी राजा के द्वारा विजित राज्य में सर्वत्र तथा निकटवर्ती चैल, पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी के राज्यों तक एवं यवन राज्य अन्तिशोक और उसके निकटवर्ती दूसरे राजाओं के राज्यों तक प्रियदर्शी राजा की दो चिकित्साविधियाँ व्यवस्थित हैं। मानव चिकित्सा और पशु चिकित्सा।

3. तृतीय शिलालेख -
   देवानां प्रियदर्शी राजा कहते हंै कि अभिषेक के बारह वर्ष यह आज्ञा मैंने दी कि मेरे राज्य में सर्वत्र युकत (राजस्व अधिकारी) रज्जुक (पदाधिकारी) और प्रादेशिक (प्रदेश का अध्यक्ष) पाँच- पाँच वर्ष पर जैसे अन्य कार्यों के लिये दौरा करते हैं। धर्मानुशिष्टि के लिये भी दौरे पर जायें। वे उपदेश दें कि माता- पिता की सेवा, मित्र- परिचित, स्वजाति, ब्राह्मण - शर्मण को दान, प्राणियों को न मारना, अल्प व्यय तथा जल्प संग्रह ये सब अच्छे हैं।

4. चतुर्थ शिलालेख -
                इस अभिलेख में अशोक ने अपने दिव्य धार्मिक प्रदर्शनों की चर्चा की है तथा धर्म प्रचार के अपने प्रयासों का आकलन भी किया है। वह कहता है ‘‘सैकड़ों वर्षों का अन्तराल हो गया। प्राणियों का वध, जीवों के प्रति विशेष हिंसा, सम्बन्धियों के साथ अनुचित व्यवहार तथा ब्राह्मणों शर्मणों के साथ अशिष्ट व्यवहार बढ़ता ही गया। किन्तु आज देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्माचरण से युद्ध में बजने वाली भेरी (नगाड़ा) का घोष धर्म के घोष में बदल चुका है। आज तक धर्म में ऐसा प्रभाव नहीं पड़ा था जैसा कि धर्मानुशासन से लोग प्रभावित हो रहे हैं। प्राणियों की हत्या न होना, किसी जीव को पीड़ा न देना, सम्बन्धियों के प्रति उचित व्यवहार, ब्राह्मणों- शर्मणों के प्रति उचित आदर, माता- पिता की सेवा और श्रेष्ठ जन, वृद्ध की सेवा बढ़ रही है। इस प्रकार बहुविध धर्माचरण बढ़ा है। धर्मानुशासन ही श्रेष्ठ कर्म है।

       5. पंचम शिलालेख-
           देवानां प्रिय प्रियदर्शी कहते हैं कि कल्याण करना कठिन है। मैंने बहुत से कल्याण कार्य किये हैं। इसलिये मेरे पुत्र- पौत्र तथा जो उनकी सन्तानें होंगीं कल्पान्त तक यदि वैसा अनुसरण करे तो पुण्य करेंगे जो इस कर्तव्य को भंग करेंगे वे पाप करेंगे। पाप करना आसान है बहुत समय से महामात्यों की नियुक्ति नहीं होती थी, परन्तु अभिषेक के तेरहवें वर्ष मैंने धर्म महामात्यों को नियुक्त किया। ये लोग धर्म की रक्षा, धर्म की वृद्धि  तथा धार्मिक कार्यों में लगे हुए कर्मचारियों के हित एवं सुख के लिये भृत्य और स्वामी , गृहस्थ और ब्राह्मण, अनाथ और वृद्ध सबके बीच उनके हित और सुख के लिये नियुक्त हैं।5

6. शष्ठम शिलालेख-
इस अभिलेख में अशोक का यह मत है कि
सर्वलोक  हित मेरा कर्तव्य है। उसका आधार है- सदा उद्योग करना (उत्थान और कार्य का सम्पादन)। अनहित से बढ़कर दूसरा कोई कर्म नहीं। मैं जो कुछ पराक्रम करता हूँ वह इसलिये कि जीवधारियों के ऋण से मुक्त हो जाऊं। मैं इस लोक में उन्हें सुखी बनाऊँ। और दूसरे लोक में वे स्वर्ग प्राप्त कर सके।

7. सप्तम अभिलेख -
 इसमें अशोक ने बतलाया है कि मनुष्यों की प्रवृŸिा
और श्रद्धा अनेक प्रकार की होती है। अपने कर्तव्य का पालन वे पूर्णतया आंशिक
 रूप से करते हैं। जो मनुष्य प्रचुर दान नहीं कर सकता उसमें भी संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ शक्ति नित्य आवश्यक है।

8. अष्टम अभिलेख-
                बहुत काल से राजा लोग विहार यात्राओं में जाया करते थे। इन यात्राओं में मृगियाँ तथा अन्य आमोद- प्रमोद होते थे। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने दस वर्ष अभिसिक्त होकर सम्बोधि प्राप्त किया। (या बोधिवृक्ष की यात्रा में गए)। इस प्रकार धर्म यात्राएँ प्रारम्भ र्हुइं। इन धर्मयात्राओं में ब्राह्मणों और श्रमणों के दर्शन उन्हें दान करना, वृद्धों का दर्शन, सुवर्णदान आदि अत्यन्त हर्ष होता है।

9. नवम शिलालेख -
देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा कहते हैं लोग संकट के
समय में, पुत्र के विवाह में, कन्या के विवाह में, सन्तानोत्पŸिा के समय में, प्रवास गमन के काल में, तथा ऐसे दुसरे अवसरों पर अनेक प्रकार के मंगलाचार करते हैं। ऐसे अवसरों पर स्त्रियाँ भी विविध क्षुद्र और निरर्थक मंगलाचार करती हैं। मंगलाचार अवश्य करना चाहिए किन्तु ये प्रायः अल्प फल देने वाले हैं। धर्म मंगल महाफल प्रदान करने वाला होता है। इससे दासों और वेतनभोगी सेवकों के प्रति उचित व्यवहार, गुरुओं का आदर, प्राणियों की  अहिंसा, श्रमण- ब्राह्मण को दान यह सब करना पड़ता है। ये सब कार्य तथा ऐसे ही अन्य कार्य धर्ममंगल कहलाते हैं।

10. दशम शिलालेख -
राजा जो कुछ पराक्रम करते हैं, यह सब परलोक
के लिये करते हैं, जिससे कि सब लोग पापरहित हो जाये। अपुण्य ही एकमात्र पाप है। उŸाम उत्साह के बिना और प्रत्येक वस्तु को त्यागे बिना कोई भी छोटा या बड़ा व्यक्ति इस पुण्य को नहीं कर सकता। यह पुण्य बड़े लोगों के लिये दुष्कर है।
11. एकादश शिलालेख -
   ऐसा कोई दान नहीं है जैसा धर्म दान। धर्म
विभाग और धर्म सम्बन्ध। उसमें ये बातें समाहित हैंै। दास और मृतकों के प्रति उचित व्यवहार, माता- पिता की सेवा, मित्र- परिचित, सम्बन्धी तथा श्रमण- ब्राह्मणों को दान एवं ऋषियों की अहिंसा इसलिये माता- पिता, पुत्र, भ्राता, स्वामी, मित्र, परिचित, पड़ोसी को भी यह करना चाहिए।

12. द्वादश शिलालेख -
  इस अभिलेख में यह बताया गया है कि लोग
अपने धर्म की प्रशंसा तथा दूसरे धर्म की निंदा करते हैं ऐसा क्यों? ऐसा करने से अपना धर्म तो क्षीण होता ही है, दूसरे धर्म का भी अपकार होता है।

13. त्रयोदश शिलालेख -
    यह अभिलेख बहुत बड़ा है। इसमें कलिंग पर
अशोक की विजय का उल्लेख है। युद्ध के कारण होने वाले संकट और उसके परिणाम का विवरण देकर वास्तविक विषय का अर्थ बताया गया है। धर्म विषय संघीय विकास है, धर्म विषय में प्रीति मिलती है, किन्तु वह प्रीति बहुत छोटी होती है, देवानां प्रिय परमार्थ को ही महाफल मानते हैं। वह इहलौकिक तथा परलौकिक है। वह धर्म के अनुरूप है। वही सबसे बड़ा आनंद है।6

14. चतुर्दश शिलालेख -
अपने  चैदहवें शिलालेख में अशोक ने अपने
इस निश्चय को घोषित किया है कि वह अपने धम्म लिपियाँ समस्त साम्राज्य के बराबर लिखवाता रहेगा। कलिंग में धौली तथा चोगड़ से प्राप्त दो पृथक् शिलालेखों
में वह समस्त प्रजा को पुत्रवत् मानना अपना राजनीतिक आदर्श बताता है। स्पष्टतः यह आदर्श उसके धम्म का राजनीतिक पक्ष था।7

सभी धर्मों की सार वृद्धि -
बारहवें शिलालेख में अशोक विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों के बीच सहनशीलता एवं सहिष्णुता के लिये सीधा व दृढ़ निवेदन करता है इससे यह बात स्पष्ट होती है कि तत्कालीन समाज में विभिन्न सम्प्रदायों में मधुर सम्बन्ध नहीं थे। इसमें काफी विवाद थे। और ये विवाद काफी उग्र और चिन्ताजनक रहे होंगे तभी तो अशोक को सम्प्रदायों में सहिष्णुता के लिये लम्बा अभिलेख जारी करने की जरुरत महसूस हुई होगी। इस अभिलेख में इसलिये इन आशंकाओं को निर्मूल करने के उद्देश्य से ही सभी सम्प्रदायों की सारवृद्धि कल्याण की कामना की गई है। यह सारवृद्धि या उन्नति सहिष्णुता में ही सन्निहित है। अशोक का आग्रह सभी सम्प्रदायों में सकारात्मक एवं क्रियात्मक सहअस्तित्व का है। इस अभिलेख के अन्त में सम्राट ने सारतः अपना मन्तव्य प्रकट करता है -
‘‘इसका फल यह होता है कि अपने सम्प्रदाय की वृद्धि होती है और धम्म का गौरव बढ़ता है। इस हेतु तीन बातों -
1. अपने सम्प्रदाय की अत्यधिक प्रशंसा और दूसरों की निंदा से बचना।
2. अन्य सम्प्रदायों की बातों को अधिकाधिक सुनना और सुनाना।
3. सभी सम्प्रदायों में मेल- मिलाप को अभीष्ट मानता था।
डाॅ0 रमाशंकर त्रिपाठी8 केशब्दों में निःसन्देह ये भाव सर्वथा उच्च है जो विक्षिप्त संसार को भी शान्ति प्रदान कर सकते हैं।’’

धम्म का स्वरूप -
                   अशोक के धम्म के स्वरूप को लेकर विद्वानों का अनेक सम्मतियाँ हैं। अशोक के धम्म के बारे में विद्वानों की राय अलग- अलग है-
1. बौद्ध धर्म सेनार्ट के अनुसार -  अशोक के अभिलेखों का धम्म बौद्ध धर्म है और वह अशोक के समय मूलतः नीतिपरक बौद्ध धर्म का प्रतिनिधित्व करता है।
         किन्तु इस बात को मानने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि इसमें न तो चार आर्य सत्य हैं न अष्टांगिक मार्ग हैं और न आत्मा परमात्मा सम्बन्धी अवधारणाएँ हैं।

2. राजधर्म -    फ्लीट इसे राज धर्म मानते हैं जिसका विधान अशोक ने अपने राजकर्मचारियों के पालनार्थ किया था। अशोक के लेखों से स्पष्ट होता है कि उसका धम्म राजकर्मचारियों के लिये ही नहीं, सामान्य जनता के लिये भी था।

सार्वभौम धर्म -  राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे सभी धर्मों की साझी सम्पŸिा कहा है। अशोक का धम्म सभी धर्मों का सार था। डाॅ0 राजबली पाण्डेय ने माना है9 कि चाहे अशोक बौद्ध हो गया था। परन्तु जिस धम्म का उसने प्रतिपादन किया वह कोई साम्प्रदायिक व संकीर्ण धर्म नहीं था। उनके अनुसार अशोक के धम्म में था-  ‘‘सभी धर्मांे में सम्मिलित नैतिक सिद्धान्तों और आचरणों का समुच्चय और समन्वय।’’ सिद्धान्तों और आचरणों का समुच्चय और समन्वय इस प्रकार अशोक का धम्म सभी धर्मों का मानने वाला था।

धम्म प्रचार के उपाय -
अशोक अपने धम्म को लेकर बहुत उत्साही था और उसने उसके प्रचार- प्रसार के लिये विभिन्न उपायों का सहारा लिया। उसने नये- नये उपायों को साथ ही प्रचलित प्राचीन विधियों का उपयोग भी परिवर्तित रूप में किया।

1. धर्म महामात्रों की नियुक्ति -
   अशोक ने अपने शासन के अठारहवें वर्ष

में धर्म महामात्रों की नियुक्ति की और इससे पहले कभी किसी ने ऐसा नहीं किया था। ये धर्म महामात्र अशोक ने धम्म के प्रचार के मुख्य स्तम्भ थे। इनके दो प्रमुख कार्य थे- 1. धम्म की स्थापना करना और धम्म की वृद्धि करना।
2. धम्म लिपि एवं धम्मानुशासन -
अशोक ने अपनी प्रजा में धम्म के
विचारों को पहुँचाने के लिये धम्म के विचारों को शिलाओं, स्तम्भ और वस्त्र पट्टों पर अंकित करवाकर सम्राज्य भर में लगवाया और उनका जनता में प्रचार किया। अशोक ने अपने धम्म मूलक अभिलेखों को धम्मलिपि कहा और धम्म के नियमों को धम्मानुशासन कहा। उन्हें सप्ताह में विशेष दिन या विशेष नक्षत्र में विशेष समय पर या माह की निश्चित् तिथियों पर उन्हें पढ़कर सुनाया जाता था।
3. धम्म यात्राओं का आरम्भ -
अशोक ने शिकार यात्राओं एवं विहार यात्राओं
के स्थान पर धम्म यात्राओं का प्रचार किया। इन धम्म यात्राओं में वह ब्राह्मण श्रमणों के दर्शन, दान, वृद्धों के दर्शन एवं धम्मादि से उनके भरण- पोषण की व्यवस्था, जनपद की प्रजा का दर्शन उनको धम्म का उपदेश आदि करता था।
4. धम्म सावन एवं धम्मोपदेश -
अशोक के साम्राज्य के महत्व के
स्थानों पर धम्म लिपि प्रजा को सुनाने की व्यवस्था की। महत्वपूर्ण अवसरों पर या निश्चित् दिन एवं तिथियों का उपदेशक इन लिपियों को पढ़कर सुनाते थे। इसी प्रकार धम्म के उपदेश की भी व्यवस्था थी।
5. राजकीय अधिकारियों द्वारा धम्म प्रचार - अशोक ने अपने सभी उच्चाधिकारियों  राजुकों युक्तों प्रादेशिकों को धम्म के उपदेश एवं प्रचार में लगाया। इस पर सारी मशीनरी धम्म प्रचार में जुट गये।
6. दिव्य रूपों का वर्णन -
अशोक पारलौकिक जीवन में आस्था रखता
था। उसने धम्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से जनता के बीच उन स्वर्गीय सुखों का प्रदर्शन करवाया। चतुर्थ शिलालेख में अशोक कहता है ‘‘देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्माचरण से भेरी घोष धर्म घोष हो गया है। विमान दर्शन, हस्ति दर्शन, अग्निस्कन्ध तथा अन्य दिव्य रूपों के प्रदर्शन से।’’
7. जनकल्याण के कार्य-
   अपने धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिये अशोक
ने मानव तथा पशु- पक्षी के कल्याणार्थ अनेक कार्य किये। सर्वप्रथम पशु- पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी। इसके पश्चात् उसने अपने राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मनुष्यों तथा पशुओं के चिकित्सा की अलग- अलग व्यवस्था करवायी। सातवेें स्तम्भलेख में वह हमें बताता है- ‘‘मार्गों में मेरे द्वारा वटवृक्ष लगाये गये व पशु एवं मनुष्यों को छाया प्रदान करेंगे। आम्रवाटिकायें लगाई गई। आधे- आधे कोस की दूरी पर कुँए खुदवाये गये तथा विश्राम गृह बनवाये गये। मनुष्य तथा पशु के उपयोग के लिये प्याऊ चलाये गये। मैंने यह इस अभिप्राय से किया है कि लोग धम्म का आचरण करें। इस प्रकार विभिन्न उपायों के द्वारा अशोक ने अपने प्रिय विचारों को लोगों तक पहुँचाया। अपने इन उपायों के द्वारा फैलाये अपने धम्म से वह अपने जीवन के संध्या काल में सन्तुष्ट नजर आता है। वह सातवें स्तम्भलेख में कहता है - ‘‘जो कुछ अच्छे काम मैंने किये हैं लोगों में उन्हें स्वीकार किया है और उनका अनुसरण किया है। इसलिये माता और पिता का आज्ञा पालन, गुरुजनों का आज्ञा पालन, वृद्धजनों का सत्कार और ब्राह्मणों और श्रमणों, गरीबों और दुःखियों, दासों और नौकरों के साथ उचित व्यवहार बढ़ा है और बढ़ेगा।

सन्दर्भ सूची

1. भण्डारकर डाॅ0 आर0 अशोक, पृ0 110,
2. मुकर्जी राधाकुमुद अशोक पृ0 34
3. थापर रोमिला, अशोक एण्ड द डेक्लाइन आॅफ द मौर्यन पृ0 16
4. पाण्डेय विमलचन्द - प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास, पृ0 292
5. सहाय शिवस्वरूप - प्राचीन पुरालेखों का अध्ययन, पृ0 90
6. गोयल श्रीराम - प्राचीन भारतीय अभिलेख पृ0 96
7. वाजपेयी अग्रवाल, वाजपेयी कृष्णदŸा, सन्तोष - ऐतिहासिक भारतीय अभिलेख, पृ0 84
8. त्रिपाठी रमाशंकर - प्राचीन भारत का इतिहास, पृ0 119
9. सेनार्ट - इण्डियन एण्टिक्वेरी



अध्याय- 4
शासन विषयक नीति

           चन्द्रगुप्त मौर्य एवं चाणक्य ने लोक कल्याणकारी शासन की स्थापना की जिसक अनुसरण बिन्दुसार ने किया। तत्पश्चात् अशोक ने राज्य के कल्याणकारी स्वरूप में लोक मंगल की भावना को और जोड़ दिया। वह शासन की सुचारु व्यवस्था जन कल्याणकारी कार्योें के विषय में ही नहीं सोचता अपितु इस लोक के साथ- साथ आगामी जीवन सबका मंगलमय हो इसकी कामना भी करता है। लोगों के कल्याण के लिये धम्ममहामात्रों की नियुक्ति की।

महामात्रों की नियुक्ति -  अशोक ने महामात्रों के माध्यम से सम्राट एवं प्रजा के बीच सीधे सम्पर्क की व्यवस्था की जो पिछली कार्य प्रणाली की तुलना में एक नया मोड़ था। महामात्रों को छठे शिलालेख में निर्देशित किया गया है कि पहले सब काल में राजकार्य एवं प्रतिवेदना नहीं होती थी। प्रजा जब चाहे राजा के पास अपनी प्रतिवेदना भेज सकती है चाहे उद्यान में हो अथवा राजमहल में, किसी व्यक्तिगत कार्य में लीन हो, पदाधिकारी उसके पास किसी भी समय जा सकते थे एवं ऐसे अवसरों पर तत्काल भी दिया जाता था।1

प्रजा से संवाद -    सम्राट का सहज रूप में हर समय सुलभ होना, एक शासक के लिए महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है। अर्थशास्त्र में उल्लेख मिलता है कि जो सम्राट अपनी प्रजा के लिए अप्राप्य है, वह न केवल जनता मंे असंतोष बढ़ाता है बल्कि अपनी स्थिति भी संकटमय बनाता है।2 मेगस्थनीज ने उल्लेख किया है कि चन्द्रगुप्त मालिश करवाते समय भी राज्य की समस्याओं पर विचार करता था तथा मिलने की इच्छुक प्रजा से भेंट करने में संकोच नहीं करता था।3 यह अशोक की अपनी प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व की भावना को इंगित करता है।
अशोक ने प्रतिवेदकों नामक नए अधिकारियों की नियुक्ति की। उनका कार्य था कि वह जहाँ- कहीं भी हो और कुछ भी कर रहा हो भोजन कर रहा हो, गोशाला में हो, पालकी में जा रहा हो या उपवन में हो, सब समय प्रजा का हाल उसे सुनाया जाए। चतुर्थ स्तम्भ प्रज्ञापन पुलिसानी नाम के अधिकारी की जानकारी देता है। षष्ठ शिलालेख में प्रतिवेदकों की नियुक्ति की चर्चा है।4 इसी प्रकार पुरुष नामक संपादक वाहन अधिकारी का भी जिक्र आया है। इलाके में ‘अन्त महामात्र’ नामक नए पदाधिकारी का उसके अभिलेख से पता चलता है। उसका कार्य था लोगों में धम्म का संदेश पहुँचाना तथा विद्रोहों की सम्भावनाओं को दूर करना। शाह बाज गढ़ी शिला प्रज्ञापन से स्त्री अध्यक्ष महामात्र नामक नये पद के सृजन की सूचना मिलती है इनकी तुलना कौटिल्य द्वारा उल्लिखित गणिकाध्यक्ष में की जाती है। विद्वानों की धारणा है कि इतने वरिष्ठ अधिकारी केवल वैश्याओं के लिए नहीं हो सकते। इनका सम्बन्ध निश्चित् रूप से महिला उत्थान से रहा होगा।
अशोक लोक कल्याण पर अधिक ध्यान दिया। अर्थशास्त्र में उल्लेख आया है कि अपनी प्रजा के सुख में उसका सुख है, उसके कल्याण में उसका कल्याण है, जो उसे स्वयं को प्रिय है उसे हितकर न समझते हुए प्रजो को प्रिय लगे उसे ही अपना हित माने।5 अशोक अपने अधिकारियों एवं प्रजा को एक सुसंगठित रूप  से देखना चाहता था। उसके अभिलेख के विवरण से ज्ञात होता है कि अशोक साम्राज्य के प्रत्येक भाग से अधिकारियों एवं संवाहकों की सुसंगठित प्रणाली द्वारा सम्पर्क रखता था। जिससे उसे प्रजा की परेशानियों की जानकारी मिलती थी।6

समुचित न्याय व्यवस्था -   पृथक् शिला प्रज्ञापन धौली में नगर व्यावहारिक को निर्देशित किया गया है कि वे बहुत सहस्त्र प्राणियों के ऊपर नियुक्त है। वे प्रजा के हित चिन्तक ही नहीं बल्कि भली प्रकार जनहित कार्यों के निष्पादन द्वारा प्रजा की सेवा करे और प्रजा का हृदय जीते। इस अभिलेख में अशोक घोषणा करता है -  ‘‘सब मनुष्य मेरी सन्तानें हैं स वे मुनिसे पजा ममा।’’ सम्राट के इस तथ्य का भी अभिज्ञान था कि न्याय व्यवस्था में दोष था। अतः न्याय प्रशासन में कुशलता एवं समता पर जोर देता है। सम्राट नगर व्यावहारिकों से अपेक्षा करता था कि जिस प्रकार वह न्यायिक व्यवस्था को महत्व देता है, प्रजा को अन्याय से बचाता है, वे भी ऐसा ही करें। इसके अतिरिक्त महामात्रों को निर्देशित किया गया था  िकवे दौरे पर जाएं तथा न्यायिक कार्यों एवं जन कल्याण कार्यों की समीक्षा करें।7
अशोक स्वयं दौरे पर निकलता था और ब्राह्मणों तथा श्रमणों से बातचीत करता और सभी धर्म के व्यक्तियों को उपहार स्वरूप भेंट करता था। बुनियादी तौर पर यह परिवर्तन उतना धार्मिक नहीं था जितना कि एक भारतीय राजा द्वारा अपनी प्रजा के प्रति पहली बार प्रकट किए गए दृष्टिकोण के बारे में था- ‘‘जो कुछ पराक्रम करता है वह इसलिए कि प्राणियों के प्रति मेरा जो ऋण है उससे उऋण हो पाऊँ।8राजस्व का यह अद्भुत आदर्श नया नहीं प्रेरणादायक भी था। यह उस पूर्ववर्ती मगधीय राजतंत्र के लिए सर्वथा विस्मयकारी था जिस समय राजा ही राज्य की परम सŸाा का प्रतीक होता था।

भूमि विवादों का निष्पादन  -    बहुसंख्यक ग्रामीण जनसंख्या की परेशानियों एवं भूमि सम्बन्धी विवादों के निष्पादन का दायित्व राश्रूक नामक अधिकारियों को सौंपा। अशोक अपने एक लेख में कहता है- ‘‘जनपस हित सुखाय। (स्त0अ0ले0 प्ट-1)9’’ अर्थात् ग्राम निवासियों के कल्याण और सुख के लिए उसने राश्रूकों की नियुक्ति की। अर्थशास्त्र में राष्ट्र के राजस्व के साधनों में रज्जू तथा चोर रज्जू का वर्णन आया है गांव के एक अधिकारी के रूप में चोर रज्जुक का उल्लेख है। मेगस्थनीज ने अगोरनोमोइ नामक गांवों में एक उच्च वर्ग के अधिकारियों का वर्णन किया है जिनके कर्तव्य प्रायः वे ही हैं जो अभिलेखों में राश्रूकों के कहे गए हैं अशोक इच्छा प्रकट करता है कि जैसे कोई चतुर धाय बच्चे की चिन्ता करें। राश्रूक को प्राण दण्ड और प्राणदान दोनों का अधिकार था। अशोक ने आदेश दिया था कारागार में पड़े जिन मनुष्यों को मृत्युदण्ड निश्चित् हो चुका हो उन्हें तीन दिन की मुहल्लत दी जाए ताकि न्याय में कोई त्रुटि न हो। उनके कड़े आदेश थे कि व्यवहार (विवादों की जांच आदि) और दण्ड (सजा देने में पक्षपात न हो)10
कानून की एकरूपता -    अशोक ने अपने शासनकाल में न्याय, कानून एवं दण्ड की व्यवस्था भी की थी। चतुर्थ स्तम्भलेख में उत्तराधिकारियों को जिम्मेदार एवं कार्यकुशल होने के लिये कहा गया है साथ ही पुरस्कार एवं दण्ड देने का अधिकार भी अब स्थानीय अधिकारियों को प्रदान कर दिया। इससे इंगित होता है कि सम्राट न केवल अधिकारियों को उत्तरदायी बनाना चाहता था बल्कि विकेन्द्रीकरण का प्रयास भी किया जा रहा था। अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन बिना किसी भय एवं विश्वास के साथ कर सके। अतः सम्राट ने उन्हें पुरस्कार एवं दण्ड  देने का अधिकार प्रदान कर दिया। अशोक ने न्यायिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। राय चैधरी एवं रोमिला थापर आदि की धारणा है कि ‘समता’ से अभिप्राय कानून की दृष्टि में सामाजिक समानता नहीं था कि वह समाज के इन महत्वपूर्ण तत्वों को इस प्रकार क्षुब्ध कर देता। बौद्ध धर्म में दृढ़ विश्वास के उपरान्त भी उसने प्राणदण्ड का उन्मूलन नहीं किया क्योंकि संभवतः ऐसा करना विशाल साम्राज्य की व्यवस्था एवं शांति बनाये रखने के लिए आवश्यक था यद्यपि अपने राज्याभिषेक के 27 वें वर्ष तक सम्राट 25 बार कारावास में पड़े। अधिकारियों को क्षमादान कर चुका था।11

साम्राज्य सीमाएं -   अशोक के साम्राज्य विस्तार का विवेचन उसके अभिलेखों के प्राप्त स्थलों के आधार पर आसानी से किया जा सकता है। उसके अभिलेखों में कुछ प्रदेशों और नगरों के नाम मिलते हैं- मगध, पाटलिपुत्र, खलटिक पर्वत, धाराधर पहाड़ियां, कौशाम्बी, लुम्बिनि ग्राम, कलिंग, तोसली ,समापा, खेपिंगल पर्वत, धौगाड़, सुवर्णागिरी, इसल उज्जैनी तथा तक्षशिला एवं अटावी (मध्य भारत का वन्य प्रदेश जिसे आलवी भी कहा जाता है।) ये सब नाम ऐसे प्रसंग में आए हैं जिनका संबंध अशोक साम्राज्य से था।12 उत्तर- पश्चिमी मौर्य साम्राज्य तक्षशिला के आंगेयवन राज्य अन्तियोक (एण्टियोकस थियोस ई0पू0 261से 246) के साम्राज्य से लगा हुआ था। दक्षिण में अफगानिस्तान में कांधार (शार- ए- कुना) से द्विभाषी (युनानी एरे माइक) लेख प्राप्त हुआ है। इसका प्रकाशन ईस्ट व वेस्ट नामक पत्रिका के मार्च, जून, 1958 के अंक में उमबर्टी सिरोटो ने किया। राजतरंगिणी एवं ह्वेनसांग के विवरण से स्पष्ट हेा गया है कि कश्मीर अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। तुलसी , रूमिनदेई, निगलिसागर से प्राप्त स्तम्भलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि देहरादून एवं तराई क्षेत्र अशोककालीन भारत के पवित्र स्थल थे। नेपाल घाटी एवं चम्पारण जिले भी अशोक के अधीन थे। ललित पाटन एवं रामपुंरवा से प्राप्त स्तम्भों का आधार पर ऐसा कहा जा सकता है बौद्ध परंपरा के अनुसार नेपाल अशोक के साम्राज्य का अंग था। वहां उसने ललित पाटन (मंजू पंतन) नामक नगर बसाया अपनी दूसरी पुत्री चारुमती के पति और अपने दामाद देवपाल क्षत्रीय के साथ यात्रा की। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि अशोक के समय तक बंगाल अशोक के मगध साम्राज्य का अंग था। ह्वेनसांग को बंगाल के अशोक के स्तूप देखने को मिले थे। जिनसे विवरण मिलता है कि लंका के लिए महेन्द्र और संघमित्रा रवाना हुए तो अशोक स्वयं बंगाल के ताम्रलिपि बन्दरगाह तक उन्हें जहाज पर चढ़ाने के लिए आये थे।
दक्षिण में मैसुर के चिन्तल दुर्ग जिले तक मौर्य साम्राज्य विस्तृत था। दक्षिण में मास्का (हैदराबाद में रायचूर जिला) ब्रह्मगिरी, सिहदपुर, जटिड रामेश्वर, यरेगुड़ी, गोविंदमठ, पालकि गुण्ड एवं राजुलमंडगिरी से लघुशिलालेख प्राप्त हुए हैं। दक्षिण का सम्पूर्ण क्षेत्र, स्वर्णगिरी और तोसली द्वारा शासित थे। उसके अभिलेखों में आन्ध््रा, पारिन्द्र (पुलिन्द), भोज रसिक, भोज का उल्लेख आया है। इन्हें वन्य प्रदेश तथा कुछ को सीमावर्ती क्षेत्र कहा है।13



                                                                     सन्दर्भ सूची

1. गुप्त- पृ0 34 ‘न भूतपूर्व सबे काले अथकमे व पतिवेदना वा तमया एवं कत।’
2. अर्थशास्त्र, 1/19/4
3. अर्थशास्त्र, 1/19/5
4. थापर रोमिला, अशोक तथा मौर्य साम्राज्य का पतन। पृ0 175- 176
5. शास्त्री, पृ0 254
6. कोसांबी डी0डी0- प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता पृ0 199-200
7. राय चैधरी - प्राचीन भारत का राजनीतिक इति0 पृ0 226
8. गुप्त - पी0एल0 प्रा0भारत के अभिलेख पृ0 15-16
9. राय चैधरी वही  पृ0 226
10. गुप्त पी0एल0 प्राचीन भारत के अभिलेख पृ0 21- 22- 37- 40 पंचम शिलालेख और तेरहवां शिलालेख ।




अध्याय- 5
अशोक कालीन सामाजिक नीति


          अशोककालीन जीवन व आर्थिक जीवन का विशद रूप से विवेचन किया गया है। अशोक के युग में भारतीय समाज चार वर्णों और बहुत सी जातियों में विभक्त था। मैगस्थनीज आदि ग्रीक यात्रियों द्वारा भी इस युग के समाज के विविध वर्गों पर प्रकाश डाला गया है। अशोक की धर्मलिपियों से सामाजिक जीवन के संबंध में अधिक सूचनाएं प्राप्त नहीं होतीं। पर उनमें कुछ ऐसे निर्देश विद्यमान है। जिनसे अशोक के समय के विषय में कुछ परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
अशोक की धर्मलिपियों में केवल ब्राह्मण वर्ण का उल्लेख मिलता है। चातुर्वण्र्य में क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र वर्णों का अशोक ने कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, और न ही श्वपाक और चाण्डाल सदृश अन्त्यजों का। मैगस्थनीज ने अपने यात्रा विवरण में ब्राह्मण और श्रमण दोनों का उल्लेख किया है और यह सुनिश्चित् रूप से कहा जा सकता है कि, मौर्य युग में वैदिक और अवैदिक दोनों प्रकार के धार्मिक नेता बड़ी संस्था में विद्यमान थे और वे अपना समय प्रायः तप स्वाध्याय और अध्यापन आदि में व्यतीत किया करते थे। समाज में दोनों का प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था, यही कारण है जो अशोक ने ब्राह्मण और श्रमण दोनों के प्रति सम्मान भाव प्रकट किया है, और दान- दक्षिणा द्वारा उन्हंे सन्तुष्ट रखने की आवश्यकता प्रतिपादित की है।1 ब्राह्मण और श्रमण के अतिरिक्त अशोक की धर्म लिपियों में भिक्षु- भिक्षुणी, निग्र्रन्थ और प्रव्रजित का भी उल्लेख हुआ है। भिक्षु और भिक्षुणी2 से बौद्ध भिक्षु अभिप्रेत हैं। और निग्र्रन्थ3 से जैन। प्रव्रजित4 उन कोन्यासियों को कहते थे, जिन्होंने वैदिक आश्रम- मर्यादा के अनुसार संन्यास आश्रम में प्रवेश किया हो। मौर्य युग में बहुत से धार्मिक सम्प्रदाय विद्यमान थे जिन्हें अशोक की धर्मलिपियों में ‘पाषण्ड’ कहा गया है। इन पाषंडों के अनेक प्रकार के साधु होते थे जो वैदिक प्रव्रजितों के समान ही मनुष्यों की सेवा और धर्मोपदेश में तत्पर रहा करते थे। पुरानी वैदिक मर्यादा के अनुसार मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। अशोक की धर्मलिपियों में इनमें से केवल दो आश्रमों - गृहस्थ और संन्यास का उल्लेख किया गया है। गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वालों के लिये जहां ‘गृहस्थ’ शब्द का उपयोग हुआ है।5 वहां उन्हें ही ‘उपासक’ भी कहा गया है।6 बौद्ध गृहस्थों के लिए उपासक शब्द का प्रयोग किया जाता था।
अशोक की धर्मलिपियांे में यद्यपि शूद्रों का कहीं उल्लेख नहीं है पर ‘दास’ और ‘मृतक’ से सम्भवतः समाज के उसी वर्ग को सूचित किया गया है, जिसके लिए कौटिल्य अर्थशास्त्र में ‘शूद्र’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। धर्म लिपियों में अनेक बार दास- मृतकों का उल्लेख किया गया है और अशोक ने यह आदेश दिया है कि उनके प्रति सम्यक् व्यवहार किया जाए। कौटलीय अर्थशास्त्र में दासों, कर्मकरों और मृतकों से सम्बन्ध वाले नियमों का विशद रूप से निरूपण किया गया है। ये नियम ऐसे हैं, जिन्हंे समुचित कहा जा सकता है। अशोक इस बात के लिए उत्सुक था कि स्वामी लोग जहां दासों, कर्मकरों और मृतकों के संबंध में परम्परागत व राजकीय नियमों का अविफल रूप से पालन करें वहां साथ ही उनके प्रति सहानुभूति और अनुकम्पा का ही भाव रखें।
अशोक ने ‘समाजों’ के संबंध में जो नीति अपनायी थी, उसका निरूपण पिछले एक अध्याय में किया जा चुका है। देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक ‘समाज’ में बहुत दोष देखते थे अतः उन्होंने आज्ञा प्रसारित की थी कि ‘समाज’  न किये बार पर एक प्रकार के ऐसे भी समाज थे, जो अशोक के विचार में साधु थे। इन्हें अशोक ने राजकीय आदेश द्वारा नहीं रोका था। कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक स्थानों पर ‘समाज’ का उल्लेख है पर उनका सही- सही अभिप्राय जानने के लिए प्राचीन साहित्य के अन्य ग्रन्थों में अनेक सूचनाएं उपलब्ध है। महाभारत में एक ऐसे समाज का वर्णन किया गया है, जिसमें सब दिशाओं से हजारों की संख्या में ‘मल्ल’ एकत्र हुए थे। ये सब मल्ल ‘महाकाव्य’ और ‘महावीर्य’ थे और शक्ति में कालकुंज नामक असुर के समान थे। यह समाज ब्रह्मा और पशुपति की पूजा के सम्बन्ध में आयोजित किया गया था।7
महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर समाजों में एकत्र ‘नियोधकाः’ का उल्लेख है।8 महाभारत में वर्णित इन समाजों में मल्ल या नियोधक एकत्र होकर युद्ध करते थे और लोग उन्हें देखकर आनन्द अनुभव करते थे। सम्भवतः इसी प्रकार के समाज थे जिनमें अशोक दोष देखता था और जिन्हंे उसने अपने राजकीय आदेश द्वारा बन्द कर दिया था। पर कतिपय समाज ऐसे भी थे, जो देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा अशोक के मत में साधु प्रकार के थे। ऐसे एक समाज का उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में हुआ है वहां लिखा है कि मास या पक्ष के निर्धारित दिन सरस्वती के भवन में ‘समाज’ का आयोजन हो।9 सम्भवतः सरस्वती के भवन में आयोजित इन समाजों में साहित्यिक नाटक आदि के अभिनय किये जाते थे। एक धर्मलिपि में अशोक ने जादू होने से आविष्ट लोगों में कार्य करने के लिए भी धर्म महामात्रों की नियुक्ति का उल्लेख किया है।10 धर्म महामात्र जहां कारावास में बन्द कैदियों और अधिक सन्तान के कारण कष्ट पीड़ित गृहस्थों में कार्य करते थे, वहां उनका कार्यक्षेत्र ऐसे लोगों में भी था, जो जादू- टोने में विश्वास रखते हों।
नक्षत्र आदि में विश्वास के निर्देश भी अशोक की धर्मलिपियों में विद्यमान है। धौली शिला पर उत्कीर्ण प्रथम अतिरिक्त धर्मलिपि में अशोक ने अपने धर्ममहामात्रों को यह आज्ञा दी है - यह (धर्म) लिपि तिष्य नक्षत्र में सुनानी चाहिए, तिष्य नक्षत्र के (दिनों के) बीच में भी और एक क्षण को प्र्रतिक्षण भी। एसा करते हुए आप आज्ञा को सम्पादित करने में समर्थ होंगे।11
विशिष्ट नक्षत्रों के समय में अशोक ने पशु हिंसा का जो निषेध किया था12 उसका कारण भी यही था कि उस समय के विश्वासों के अनुसार ये नक्षत्र जनता की दृष्टि में अधिक पवित्र थे।
अशोक ने अपने उत्कीर्ण लेखों में ब्राह्मणों और श्रमणों का एक साथ उल्लेख किया है और देानों के प्रति दान तथा सम्मान के संबंध में सम भाव प्रदर्शित किया है। साथ ही, उसने विविध सम्प्रदायों तथा पाषण्डों के सार वृद्धि पर बल दिया है। सम्भवतः इसका कारण यह था कि मौर्य युग में ब्राह्मणों और श्रमणों में पारस्परिक विरोध बहुत बढ़ गया था और अशोक को यह अभीष्ट नहीं था। पाणिनी के सूत्र ‘येषो च विरोधः शाश्वतिकः’’ की टीका में प्राचीन वैयाकरण परम्परा का अनुसरण कर अहि (सांप) और नवुल (नेवला) के शाश्वत विरोध का निदर्शन जैसे ‘अहिनवुलम्’ द्वारा सूचित किया गया है, वैसे ही श्रमण- ब्राह्मण उदा0 देकर श्रमणों और ब्राह्मणों के शाश्वत विरोध को भी प्रदर्शित किया गया है। अशोक इस विरोध को भी दूर करना चाहता था।13


                                                              सन्दर्भ सूची

1. धौली शिलालेख - प्रथम अतिरिक्त लेख
2. एताये च अहाये हकं........मते पैचसु पंचसु वसेसु निखाययिसामि। धौली- प्रथम अतिरिक्त लेख।
3. चतुर्दश शिलालेख- नौवां लेख।
4. प्रयाग स्तम्भ लेख।
5. देहली- टोपरा स्तम्भ लेख
6. चतुर्दश शिलालेख- बारहवां लेख।
7. चतुर्दश शिलालेख- बारहवां लेख।
8. 1  वही
9. सिद्धपुर लघुु शिलालेख
10. तप्त मल्लाः   - कालकंजा इवासुराः
    महाभारत विराटपर्व 13/15-16
11. ये च केचिन्निंयोत्स्यन्ति समाजेषु नियोधकाः। महाः विराट् पर्व 2/7
12. पक्षस्य मासस्य वा प्रज्ञातेऽहि सरस्वत्या भवने नियुक्तानां नित्यं समाजः।
13. देहली - टोपरा स्तम्भ लेख- पांचवां लेख।





अध्याय- 6
अशोक के उत्कीर्ण लेख

1. चतुर्दश शिलालेख -   पुरातत्व विभाग के प्रयत्न से राजा  अशोक के बहुत से उत्कीर्ण लेख प्रकाश में आये हैं मौर्य युग में इतिहास को तैयार करने के लिए ये बहुत उपयोगी हैं और हमने स्थान- स्थान पर इस ग्रन्थ में उसका उल्लेख किया है। ये लेख शिलाओं प्रस्तर- स्तम्भों और गुहाओं की भित्तियों पर उत्कीर्ण हुए मिलेहैं। अशोक के उत्कीर्ण लेखों में सर्वप्रधान चतुर्दश शिलालेख है जो निम्न स्थानों पर विद्यमान है -
कालसी -  यमुना नदी हिमालय की दुर्गम पर्वत- श्रृंखलाओं को छोड़कर जहां मैदान में उतरती हुई है, उसके समीप ही कालसी नामक वस्ती से है। कोई एक मील की दूरी पर वह स्थान है जहां अशोक के चतुर्दश शिलालेखों की एक प्रति एक विशाल शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण राजनीतिक दोनेां दृष्टियों से इस स्थान का बहुत महत्व था। कालसी के क्षेत्र में अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि प्राचीन काल में राजनीतिक दृष्टि से भी यह स्थान विशेष महत्व रखता था।
‘‘कालसी स्थल पर खुदाईयों में शिलालेख के लगभग सामने, संस्कृत पदों से उत्कीर्ण ईंटों की एक वेदी मिली है।’’1
शाहबाज गढ़ी -  पेशावर के यूसुफजई ताल्लुके में शाहबाजगढ़़ी नाम का एक गांव है जो पेशावर नगर से चालीस मील उत्तर- पूर्व में मकाम नदी के तट पर स्थित है। उसके आधे मील की दूरी पर चतुर्दश शिलालेखों की एक प्रति विद्यमान है, जो खरोष्ठी लिपि में है।। कनिघम के अनुसार- हयुएनत्सागे द्वारा वर्णित पो-लु-शा नाम का नगर इसी स्थान पर स्थित था। जो बौद्धों का प्रसिद्ध तीर्थ था। ह्युएनत्सांग ने लिखा है - ‘‘कि इस पो-बु-शा से 20 मी0 की दूरी पर दन्तालोक पर्वत की सत्ता थी, जहां पर भी अशोक द्वारा एक स्तूप का निर्माण किया गया था।2

मानसेहरा -   यह स्थान भी पाकिस्तान के उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रान्त में है। मानसेहरा में अशोक के चतुर्दश शिलालेखों की जो प्रतिलिपि उत्कीर्ण है, वह भी खरोष्ठी लिपि में है।3 भारत के इस उत्तर- पश्चिमी सीमा प्रदेश में प्राचीन समय में भी एक ऐसी लिपि प्रयुक्त की जाती थी, जिसे दायीं ओर से बाई ओर को लिखा जाता था।
मानसेहरा के लेख तीन पृथक् शिलालेख पर उत्कीर्ण है। पहली शिला पर प्रथम          
            से अष्टम संख्या तक के आठ लेख हैं, दूसरी शिला पर नवम से बारहवें तक  
            के लेख हैं और शेष दो लेख तीसरी शिला पर हैं।

गिरनार -   सौराष्ट्र (काठियावाड़) में जूनागढ़ नामक नगर के पूर्व में लगभग    एक मील दूर गिरनार या गिरिनगर नामक पर्वत की स्थिति है जो धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गिनार की पहाड़ी पर जिस शिलाखण्ड पर अशोक के चतुर्दश शिलालेख उत्कीर्ण है। दो अन्य लेख उत्कीर्ण है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, एक लेख उज्जैनी के महाक्षप्रण रुद्रदामन का है और दूसरा गुप्तवंशी सम्राट स्कन्दगुप्त का। रुद्रदामन ने अपने लेख में यह सूचित किया है कि गिरनार के समीप में स्थित जिस सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त4 के प्रान्तीय शासक पुष्यगुप्त द्वारा किया गया था और अशोक के शासनकाल में उसकी ओर से प्रयुक्त प्रांतीय शासक यवन तुसास्प ने जिससे अनेक नहरें निकलवायी थी, वह सुदर्शन झील अतिवृष्टि के कारण मग्न हो गई थी और रुद्रदामन द्वारा अब उसका जीर्णोद्धार कराया गया था।5
स्कन्दगुप्त के लेख में भी इसी सुदर्शनझील के जीर्णोद्धार का उल्लेख है।6

सीपारा -  यह बम्बई के उत्तर में थाना जिले में समुद्र के तट पर है। प्राचीन समय में यहां एक, समृद्ध नगर था जिसे महाभारत में ‘शूपरिक’ कहा गया है। पैरिप्लस के लेखक ने इसके ‘सुप्पारा’ और टाल्मी ने ‘पारा’ लिखा है। इसके व्यापारिक महत्व के कारण ही अशोक ने यहां भी अपने चतुर्दश लेख उत्कीर्ण कराये थे।7

येर्रागुडी -  आन्ध्रप्रदेश के कर्नूल जिले में एर्रगुडि नामक एक ग्राम है जो दक्षिण रेलवे की मद्रास- रायचूर शाखा लाइन पर गूती नामक स्टेशन से आठ मील की दूरी पर स्थित है। यहां भी शिलाखण्डांे पर अशोक के चतुर्दश शिलालेख उत्कीर्ण हैं।

जौगढ़ -  यह स्थान आन्ध्रप्रदेश के गंजाम जिले के बरहमपुर नामक ताल्लुका में है सम्भवतः इस नगर का नाम ‘समापा’ था जिसके महामात्रों को सम्बोधन कर अशोक ने यहां दो विशेष लेख उत्कीर्ण कराये थे।
              जौगढ़ में अशोक के जो उत्कीर्ण लेख मिले हैं, वे तीन पृथक् खण्डों पर उत्कीर्ण हैं।
धौली -   उड़ीसा के पुरी जिले की खुर्दा तहसील में धौली नाम का एक गांव है, जो भुवनेश्वर से लगभग सात मील दक्षिण में स्थित है। धौली के समीप तीन पहाड़ियों की एक छोटी सी श्रृंखला है जहां ‘अश्वस्तम’ नामक शिला पर अशोक के लेख उत्कीर्ण हैं। धौली के विशिष्ट लेख तोसली के महामात्यों को सम्बोधित किये गये है। ‘‘इस स्थल को तोसली माना गया है।’’8
कन्धार -  कन्धार में अशोक के दो अन्य शिलालेख मिले हैं, जो पालि से न होकर ग्रीक तथा (अरमाई) भाषाओं में है।

2. स्तम्भलेख -   प्रस्तर खण्डों या शिलाओं के समान प्रस्तर- स्तम्भों पर भी अशोक ने अपने लेख उत्कीर्ण कराये थे। ये लेख संख्या में सात हैं। ये स्तम्भ निम्नलिखित स्थानों पर विद्यमान हैं -

दिल्ली का टोपरा स्तम्भ -  वर्तमान समय में यह स्तम्भ दिल्ली के दरवाजे के दक्षिण में फिरोजाबाद फोटला में विद्यमान है। पर पहले यह स्तम्भ अम्बाला जिले के होपरा नामक ग्राम में था। टोपरा की स्थिति सढौरा कस्बे से 16 मील दक्षिण में है। तुगल वंश के सुल्तान फिरोजशाह को पुरातत्व में बहुत रुचि थी। उसके द्वारा ही यह स्तम्भ टोपरा से दिल्ली लाये जाने का विशद् रूप से वर्णन किया है। उसने लिखा है कि 42 पहियों वाली गाड़ी पर यह स्तम्भ पहले टोपरा से यमुना के तट पर पहुंचाया गया और वहां से नौकाओं द्वारा इसे दिल्ली लाया गया। सुल्तान ने अशोक के उस स्तम्भ को पुनः स्थापित किया, जिसे वह टोपरा से लाया था।
टोपरा स्तम्भ का जो भाग जमीन के ऊपर है उसकी ऊंचाई 42 फीट 7 इंच है। यह सारा स्तम्भ एक ही प्रस्तर- खण्ड से निर्मित है जो रंग में हल्का गुलाबी है। स्तम्भ के ऊपर वाले भाग  पर चमकीली पाॅलिश की गई है, जो दो हजार साल से अधिक बीत जाने पर भी अब तक पूर्णतया सुरक्षित है। पाॅलिश किया हुआ यह भाग ऊंचाई में 35 फीट है। निचले निचले भाग पर पालिश नहीं है, वह खुरदरा है। फीरोजशाह जेटला में विद्यमान इस दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर अशोक के सातों स्तम्भ लेख उत्कीर्ण है और वे भी सुपाठ्य तथा सुरक्षित दशा में। अन्य स्तम्भों पर सातवां लेख नहीं पाया जाता।
             
दिल्ली-मेरठ स्तम्भ -  दिल्ली में ही अशोक का एक अन्य स्तम्भ भी विद्यमान है जो कश्मीरी दरवाजों के पश्चिम- उत्तर में फैली हुई पहाड़ी पर स्थापित है। यह स्तम्भ पहले मेरठ में था और टोपरा स्तम्भ के समान फीरोजशाह तुगलक द्वारा ही दिल्ली लाया गया था।9 फर्रूखसियर (1713.19) के शासनकाल में बारूद खाने के फट जाने के कारण इस स्तम्भ को बहुत क्षति पहुंची। वह गिर गया और अनेक टुकड़ों में विभक्त हो गया।

प्रयाग स्तम्भ -  वर्तमान समय में यह स्तम्भ प्रयाग के किले में विद्यमान है इसका अशोक के स्तम्भ लेखों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक लेख उत्कीर्ण हैं, जिनमें गुप्तवंशी सम्राट समुद्रगुप्त की प्रशस्ति सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इस स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख निम्नलिखित है- 1. दिल्ली-टोपरा स्तम्भ पर उत्कीर्ण सात लेखों से पहले छः लेख। 2. अशोक द्वारा उत्कीर्ण कराया गया एक अन्य लेख जो कौशाम्बी के महामात्र के नाम आदेश के रूप में है।
अशोक द्वारा उत्कीर्ण एक अन्य लेख जिसमें तीवर की माता द्वितीय देवी कालुवाकी के दान- पुण्य का उल्लेख है।
समुद्रगुप्त की प्रशस्ति।
जहांगीर का एक लेख।
                  टोपरा स्तम्भ के समान प्रयाग स्तम्भ भी एक ही प्रस्तर खण्ड द्वारा निर्मित है। इसकी कुल ऊंचाई 42 फीट 7 इंच है और यह भी हलके गुलाबी रंग का तथा पालिश किया हुआ है। कौशाम्बी के महामात्र को सम्बोधन कर एक लेख अशोक ने इस स्तम्भ पर उत्कीर्ण कराया था, जिससे यह परिणाम निकाला गया है कि यह स्तम्भ पहले कौशाम्बी में ही रहा होगा।

लौरिया- अरराज स्तम्भ -  उत्तरी बिहार के चम्पारन जिले में यह स्तम्भ विद्यमान है जो ऊंचाई में 36 फीट 6 इंच के लगभग है। यह भी एक ही प्रस्तर-खण्ड द्वारा निर्मित है। राधिया नामक ग्राम के पूर्व- दक्षिण में 2 मील की दूरी पर अरराज महादेव का मन्दिर है। वहां से मील भर दूर लौरिया नामक स्थान पर यह स्तम्भ स्थित है। इस पर टोपरा स्तम्भ वाले पहले छः स्तम्भ- लेख उत्कीर्ण है।
‘‘इस प्रदेश के स्तम्भ पाटलिपुत्र से नेपाल वाले राजपथ के मार्ग चिन्ह हैं।10

लौरिया- नन्दनगढ़ स्तम्भ -  यह भी बिहार के चम्पारन जिले में ही है। लौरिया से उत्तर- पश्चिम में नेपाल राज्य की ओर जाते हुए लौरिया- नन्दनगढ़ का स्तम्भ दिखायी देता है। ‘‘इसके समीप बहुत से प्राचीन अवशेष भी विद्यमान है, जिन्हें कतिपय ऐतिहासिक बौद्ध युग से भी पूर्व का मानते हैं।11 लौरिया- नन्दनगढ़ का स्तम्भ ऊँचाई में 32 फीट 9 इंच है। इसका शीर्ष कमलाकार है, जिस पर एक सिंह उत्तर की ओर मुख किए हुए खड़ा है और शीर्ष से नीचे उपकण्ठ पर राजहंसों की पंक्तियां मोती चुगती हुई दिखाई गई है। इस स्तम्भ पर भी टोपरा स्तम्भ वाले पहले छः लेख उत्कीर्ण हैं।
                  ‘‘इसमें पहली शताब्दी ईसा पूर्व की आहत मुद्रा ढाले हुए तांबे के सिक्के, मृणमूर्तियाँ और मिट्टी की मोहरें सम्मिलित हैं।’’

रामपुरवा स्तम्भ -  बिहार के चम्पारन जिले में बेतिया में 32 मील उत्तर की ओर रामपुरवा की स्थिति है जहां अशोक द्वारा स्थापित एक अन्य स्तम्भ विद्यमान है। यह ऊँचाई में 44 फीट 9 इंच है। पहले इसके शीर्ष पर भी सिंह की सत्ता थी, जो अब उपलब्ध नहीं है। पर शीर्ष के नीचे का वर्तुलाकार उपकण्ठ आज भी सुरक्षित है और उसके राजहंसों की पंक्तियां तथा कमल ठीक दशा में है। यह स्तम्भ आजकल खड़ा न होकर आड़ा पड़ा हुआ है। इस पर भी सात स्तम्भ लेखों में से पहले छः ही उत्कीर्ण किये गये हैं।




लघु स्तम्भ लेख
        सप्त स्तम्भ लेखों के अतिरिक्त कतिपय अन्य लेख भी हैं, जिन्हें अशोक ने प्रस्तर स्तम्भों पर उत्कीर्ण कराया था। ये लेख निम्नलिखित स्थानांे पर विद्यमान है-
1. सारनाथ -  वाराणसी नगरी के उत्तर में तीन मील की दूरी पर सारनाथ नामक स्थान है, जिसका बौद्ध धर्म के इतिहास के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान बुद्ध ने इसी स्थान पर अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था। यहां बहुत से पुराने खण्डहर और भग्नावशेष विद्य़मान है, जिनसे इस स्थान के प्राचीन गौरवपूर्ण इतिहास के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। ‘‘इन्हीं भग्नावशेषों में एक प्रस्तर स्तम्भ भी है जिस पर अशोक का लघु स्तम्भ लेख उत्कीर्ण है।’’12 इसमें बौद्ध संघ में फूट डालने वालों या किसी अन्य प्रकार से उसे क्षति पहुंचाने वाले भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई है। सारनाथ का यह स्तम्भ लेख पाटलिपुत्र के महामात्रों को सम्बोधित किया गया है, क्योंकि शासन की दृष्टि से सारनाथ का प्रदेश मौर्य युग में पाटलिपुत्र के ‘चक’ के अन्तर्गत था।
               वर्तमान समय में सारनाथ से अशोक का जो स्तम्भ उपलब्ध हुआ है जिसकी ऊँचाई 37 फीट है संभवतः ह्यु एन त्सांग ने स्तम्भ की ऊँचाई के विषय में सही अनुमान न किया हो पर इसमें संदेह नहीं कि सारनाथ का यह अशोक स्तम्भ बहुत महत्व का है। मौर्य युग के अवशेषों का वर्णन करते हुए इस स्तम्भ के विषय में हम अधिक विस्तार से लिखेंगे।
‘‘धार्मिक महत्व का स्थान होने के अतिरिक्त सारनाथ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था।’’13

2. सांची का स्तम्भ -  मध्यप्रदेश में सांची एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है जो भिलसा से पांच मील की दूरी पर स्थित है। मध्य रेलवे द्वारा दिल्ली से बम्बई की ओर जाते हुए यह स्थान स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसके समीप ही सांची नामक रेलवे स्टेशन भी है। यह एक विशाल स्तूप है। जिसके दक्षिणी द्वार के समीप एक स्तम्भ स्थित है। यह स्तम्भ इस समय भग्न दशा में है। इसी पर अशोक के लघु स्तम्भ लेख की एक कृति उत्कीण है, जो सुरक्षित रूप मंे नहीं है। यह लेख सारनाथ लेख की ही प्रतिलिपि है।
3. प्रयाग स्तम्भ -   प्रयाग के किले में विद्यमान अशोक के स्तम्भ का परिचय ऊपर दिया जा चुका है। इस स्तम्भ पर जहां अशोक के सप्त स्तम्भ लेखों में से छः उत्कीर्ण है वहाँ साथ ही लघु स्तम्भ लेख भी इस पर विद्यमान है, जिसे कौशाम्बी के महामात्रांे को सम्बोधित करके दिखलाया गया है। यह भी सारनाथ के स्तम्भ लेख के सदृश ही है।
              प्रयाग के स्तम्भ पर ही अशोक का एक अन्य लेख भी उत्कीर्ण है, जिसे ‘रानी लेख’ भी कहा जाता है क्यांेकि इसमें तीवर की माता रानी चारुवाकी के दान का उल्लेख किया गया है।

अन्य उत्कीण लेख -
लघु शिलालेख -  प्रथम लघु शिलालेख का महत्व इसलिये है कि उसमें अशोक के व्यक्तिगत जीवन का इतिहास अंकित किया गया है। द्वितीय लघु शिलालेख में धर्म के बारे में बहुत  कुछ अंकित किया गया है। प्रथम लघु शिलालेख के विभिन्न संशोधित रूप सिद्धपुर, जटिंग- रामेश्वर, ब्रह्मगिरी (मैसुर राज्य में), मास्की (भूतपूर्व हैदराबाद में), सहसराम (बिहार के शाहाबाद जिल मेंे), जबलपुर जिले के रूपनाथ स्थान पर और राजस्थान पर बैराट में पाया जाता है। गावि मठ और पालकी गुण्डू शिलालेख भी प्रकाश में आ चुके हैं। ये शिलालेख 258 या 257 ई0पू0 के बाद के हैं।
भाबरू शिलालेख बैराट पर्वत की चोटी पर एक शिलाखण्ड पर अंकित मिलता था। किन्तु अब इसे उस स्थान से हटाकर कलकत्ता लाया गया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. एंशेट इंडिया 9, पृ0 146
2. वाटसे आनयुआन च्वांग्स ट्रेवल्स इन इण्डिया, खण्ड 11 पृ0 14?
3. मेकफेल, अशोक पृ0 76
4. सरकार, सेलेक्ट इंस्क्रिप्शंस, पृ0 169
5. मौर्य साम्राज्य का इतिहास - सत्यकेतु विद्यालंकार पृ0
6. वही,
7. एंशेंट इण्डिया 1,6 मैकक्रिंडल द्वारा उद्धृत पृ0 39, 40
8. मैकक्रिंडल (सं.) टीलेमी, एंशेट इंडिया पृ0 230- 1
9. हुल्श, कारपस इंस्क्रिंप्शनम, इंडिकरम खं0 1 पृ0 15
10. स्मिथ, अशोक पृ0 120
11. कनिंघम, एंशेंट जिओग्राफी आफ इण्डिया पृ0 514
12. उदान टीका पृ0 233
13. रोमिला थाॅपर, अशोक और मौर्य साम्राज्य का पतन पृ0 236

अध्याय- 7

  अशोक का मूल्यांकन -
  सम्पूर्ण इतिहास में कोई भी ऐसा राजा नहीं, जिसका जीवन मानव या राजा अशोक की तुलना में लाया जा सके। अशोक एक कुशल राजा होने के साथ ही साथ एक कलाप्रेमी भी था। उसने न केवल साम्राज्य का विस्तार अपितु प्रजा हित के लिए अनेक प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराई। डाॅ0 आर0के0 मुकर्जी का कथन है कि ‘‘सम्पूर्ण इतिहास में कोई भी ऐसा राजा नहीं, जिसकी तुलना राजा अशोक के जीवन से की जा सके।1
सम्राट अशोक की महत्ता को स्पष्ट करने के लिए उसकी तुलना इतिहास की अन्य विभूतियों से की गई है। इस तुलना में अशोक के सम्मुख अनेक नवीन और प्राचीन ईसाई और यवन, आस्तिक और नास्तिक आदि आदि अनेक व्यक्तियों को खड़ा किया गया है। अपने सम्पूर्ण बौद्ध धर्म को स्थापित करने की अशोक की अभिलाषा उसे इजराईल के डेविड और सोलोमन के सम्मुख ला खड़ा करती है। इन दो राजाओं केे राज्य काल में इजराईल उन्नति के शिखर पर था। अशोक ने स्थानीय धर्म को विश्व धर्म का रूप दे डाला था। राज्य विस्तार और राज्य प्रणाली को दृष्टि मंे रखकर उसे शर्लीमेन के समान स्थान प्राप्त किया है। उनसे अपने शिलालेखों को धार्मिक शिक्षाओं को बार- बार दोहराया है। अतः इस दृष्टि से उसके उपदेश अलीवर क्रामवेल के भाषणों से मिलते हैं। अतः मैं उसे खलीफा उमर और सम्राट अकबर के सम्मुख भी खड़ा किया जा सकता है।2 डाॅ0 राय चैधरी का विचार है कि - ‘‘अशोक एक महान् ऐतिहासिक विभूतियों में से एक था। वह ध्येयनिष्ठ और दृढ़ संकल्पी था उसमें प्रजा को सभी दृष्टियों से सुखी करने की चेष्टा की । वह प्रजा को अपनी संतान से कम दर्जा नहीं देता था। उसकी राज्य पद्धति व संगठन शक्ति अपने आप में अद्वितीय था। वह ऐसा राजनीतिज्ञ था जिसमें शक्तिशाली सेनाओं के साथ महान् सफलताओं को प्राप्त किया और उसने कुछ वर्ष पश्चात् गंगा घाटी के धर्म को उठाकर विश्व धर्म का रूप दे डाला। वह अहिंसा और सहिष्णुता का प्रचारक था। उसने सेना का त्याग विजित होने पर नहीं बल्कि विजेता होने पर किया। उसकी नीति, दया, करुणा से ओतप्रोत थी। हमें भूलना न चाहिए कि उसके पास एक शक्तिशाली साम्राज्य था। हेमचन्द्र राय चैधरी के अनुसार -‘‘अशोक मंे चन्द्रगुप्त मौर्य जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी बहुमुखी प्रतिभा तथा अकबर जैसी सहिष्णुता थी।’’3
अशोक का स्थान इतिहास में ही नहीं वरन् विश्व इतिहास में अद्वितीय है। इस महान् शासक ने एक विजिडिगिषु  शासक, महान् विजेता, महान् निर्माता, अप्रतिम धर्मपरायणता, लोक हितार्थ चिंतनशीलता आदि सम्पूर्ण वैशिष्ट्य का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। उसने एक ओर सैन्य निपुणता का परिचय देते हुए भारत वर्ष में अभूतपूर्व राजनीतिक एकता कायम की, वहीं प्रजापालक सम्राट के रूप में पितृपरक राजत्व सिद्धान्त  के साथ विशाल साम्राज्य के धम्म शासक का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। इस महानतमा की ऊँचाई से भी अशोक में कहीं भी अपने दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं किया, वरन् जनसेवक की भूमिका में ही दिखाई पड़ता है। प्रजा के हित चिन्तन में उसी निष्ठापूर्ण ईमानदारी से दिखाई देता है। जैसे पिता अपने पुत्र के साथ दिखाई देता है। छठे शिलालेख से अशोक के राजत्व की अवधारणा पर प्रकाश पड़ता है।
   ‘‘सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है। इससे बढ़कर केाई दूसरा कर्तव्य नहीं। मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ वह इसीलिए कि भूतों के ऋण से मुक्त होऊँ।’‘4

1. राजकुमार के रूप में -   अशोक को बिन्दुसार ने कुमारोचित शिक्षा दी थी। ‘दिव्यावदान’ का कथन है कि बिन्दुसार ने आजीवक पिंगल वास से अपने समस्त राजकुमारों की परीक्षा करवाई थी। उसमें अशोक सर्वप्रथम रहा। अपने पिता के समय उज्जैन और तक्षशिला का गवर्नर रहकर उसने अपनी योग्यता का परिचय दिया था। उसने तक्षशिला में रहकर प्रान्तीय जनता के विद्रोह को शांत किया। वहीं उसने यूनानी भाषा तथा एरेमाइक एवं खरोष्ठी लिपियों का ज्ञान प्राप्त किया होगा। सम्भवतः उसने विभिन्न धर्मों विशेषतः बौद्ध धर्मों का अध्ययन कर रखा था। उसे अर्धमागधी पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि का अच्छा ज्ञान था। अनुमानतः अपने अभिलेखों के प्रारूप को पढ़कर ही उसने लिपिकारों को उन्हें उत्कीर्ण कराने की आज्ञा दी होगी।

2. पारिवारिक जनों के प्रति सहानुभूति -  उत्तराधिक युद्ध में विजय होने के पश्चात् भी उसने अपने अनेक भाईयों और बहनों के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया। अपने पांचवें शिलालेख में वह अपने अन्तःपुरों, भाईयों, बहनों और अन्य संबंधियों की देखरेख के लिए नियुक्त धर्म महामात्रों का उल्लेख करता है।

3. भारतीय एकता की स्थापना -  हिन्दुकुश से कर्नाटक तक और गुजरात से बंगाल तक उसने भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांँध दिया। उसकी राजनीतिक एकता को दृढ़ करने के लिए उसने एक लिखित भारतीय अमात्य वर्ग और शासनतंत्र की स्थापना की। पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग सम्पूर्ण देश में होने लगा। शिलालेख और स्तम्भलेख सम्पूर्ण देश में स्थापित कराये गये। धम्म सार्वजनिक बनाया गया। इस प्रकार की अभूतपूर्व राजनीतिक एवं सांस्कृतिक एकता मिली। भण्डारकर का कथन है कि ‘‘अशोक के समय में सारा देश आर्य बन चुका था। इसके परिणामस्वरूप पाली या स्मारकीय प्राकृत भारत की राष्ट्रभाषा बन गई।5

4. साम्राज्य का विस्तार -    उसने न केवल पैतृक साम्राज्य की रक्षा की वरन् कलिंग- विजय के द्वारा उसका विस्तार भी किया। यह उसकी प्रशासक कुशलता का प्रमाण है कि उसने जीवन- पर्यन्त न कही प्रान्तीय विद्रोह हुआ और न किसी दिशा में विदेशी आक्रमण हुआ।

5. कूटनीतिक संबंध -   यद्यपि उसने शर सव्य- विजय छोड़ दी थी। तथापि ‘धम्म’ की व्यापक परिकल्पना को अपनी कूटनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाकर उसने अपने साम्राज्य की सीमा पर स्थित एवं उससे दूर देशों को अपना विश्वासपात्र बना लिया था। उसके मित्र राजाओं में आन्तियोक तुरमन्य अन्तकिनिमक और अलिक सुन्दर थे। देश के भीतर सीमा पर स्थित राज्य चोल पाण्ड्य सलियपुत्र और केरलपुत्र थे। इनके और लंका के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे।

6. धर्मनिरपेक्ष राज्य -  इसमें कोई संदेह नहीं कि उसका व्यक्तिगत धर्म बौद्ध था। कलिंग युद्ध के महाविनाश के पश्चात् उसने सार्वजनिक रूप से अपना उत्तरदायित्व स्वीकारते हुए अनुसोचन (पश्चाताप) किया था और तत्पश्चात् उसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उसने बौद्ध धर्म में एकता का प्रयत्न किया था और तृतीय बौद्ध संगीति की। परन्तु उनकी असाम्प्रदायिकता इस बात से सिद्ध होती है कि आबू और सोची- सारनाथ- प्रयाग अभिलेखों के अतिरिक्त उसमें कोई भी अभिलेख एकमात्र बौद्ध के लिए नहीं खुदवाया यही नहीं, उसने श्रमणों, ब्राह्मणों, निग्रन्थों आदि के लिए आदर भावना प्रदर्शित की गई है। उसने बौद्ध धर्म को राजधर्म नहीं बनाया। उसने जिस धम्म का प्रचार- प्रसार किया वह असाम्प्रदाय था तथा सभी को मान्य था। माता- पिता स्वामी- भृत्यों और दासों के प्रति उचित व्यवहार के उपदेश ने एक सामाजिक संहिता की भांति कार्य किया। उसका बारहवां शिलालेख वास्तव में सहिष्णुता लेख था जो वर्तमान काल में भी अपनी उपादेयता रखता है।6 इसमें वह स्पष्ट करता है कि जो व्यक्ति अपने धर्म का आदर करता है और दूसरे धर्म की निंदा, वह वास्तव में अपने धर्म को ही हानि पहुंचाता है। उसने विभिन्न धर्मों, जातियों और परम्पराओं का देश में ‘सारवृद्धि’ पर जोर दिया। इसी अभिलेख में वह कहता है कि ‘देवानां प्रिय प्रियदर्शी’ राज सब धर्मों अथवा सम्प्रदायों साधुओं और गृहस्थों को दान एवं अन्य प्रकार की पूजा से सम्मानित करता है।

7. पितृवत् राजा -  वह अपनी प्रजा के लिए पिता के समान था। अपने कलिंग अभिलेख में वह घोषित करता है कि ‘‘सब मनुष्य मेरी सन्तान हैं।’’ जैसे मैं अपने संतान के लिए कामना करता हूं कि वे इस लोक और परलोक में सब प्रकार का सुख प्राप्त करें वैसे ही मैं सब मनुष्यों के लिए कामना करता हूं- सबकी सुख- समृद्धि के लिए सातवें स्तम्भलेख के अनुसार वह कहता है कि मार्गों में मैंने बरगद के वृक्ष लगवाये, प्रति आठ कोस पर कुएं खुदवाये, धर्मशालायें बनवाई और जलशालायें स्थापित करायीं। क्यों? मनुष्यों और पशुओं के सुख के लिए।
             अपने राजकीय आदर्श को प्रकाशित करते हुए वह अपने छठे शिलालेख में कहता है कि ‘सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है।’7 सर्वलोकहित से बढ़कर कोई अन्य कर्म नहीं है। मैं जो कुछ पराक्रम करता हूं। वह जनता से उऋण होने के लिए।

राजनीतिक सुधार -  उसने नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप शासन-तन्त्र में अनेक सुधार किये। इनमें धर्म महामात्रों की नियुक्ति न्यायिक क्षेत्र में राजुकों को न्याय करने की वरीयता देकर दण्ड समता और व्यवहार समता की स्थापना, मृत्युदण्ड प्राप्त अभियुक्तों को तीन दिन का अतिरिक्त जीवन हिंसा- निषेध राज्य के सर्वोच्च पदाधिकारियों को दौरा करने का आदेश, प्रतिवेदकों को तत्काल अपने समक्ष प्रस्तुत करने की अनुमति आदि कुछ प्रमुख नये प्रशासनिक कदम थे।

कला का प्रोत्साहन -  अशोक कालीन कला विशेषतया राजकीय संरक्षण में पनपी। उसके द्वारा निर्मित चमकदार एकाश्मीय लाट तथा उनके शीर्ष पर स्थित पशु मूर्तियां अपनी कलात्मकता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। बराबर पहाड़ियों उसमें अजीविकों के लिए जो गुफायें बनवायी उन्होंने लयन कला को जन्म दिया। अशोक के काल से ही प्रस्तर कला का इतिहास प्रारंभ हुआ था और उसके काल में ही चरम वैभव को प्राप्त कर ली।
अशोक ने अनेक स्तम्भों का निर्माण करवाया था। अशोक के सभी स्तम्भ एकाश्मक हंै। उन्हें सीधा जमीन में गाड़कर खड़ा किया था। इसमें धरातल के ऊपरी भाग को रगड़कर चिकना करके चमकदार पाॅलिश की गई है। बसाद बखिरा का स्तम्भ अपेक्षाकृत अधिक मोटा एवं ठिगना होने के कारण भद्दा है जबकि अन्य स्तम्भों में गोलाकार ऊपरी हिस्सों पर क्रमशः पतला हो गया था। निचला भाग 3 फीट 7 इंच से 4 फीट डेढ़ इंच व्यास वाले ऊपरी भाग का व्यास 1 फीट 6 इंच से 2 फीट 11 इंच तक है। अशोक के एकात्मक स्तम्भों में सारनाथ का स्तम्भ सबसे महत्वपूर्ण है। जिसके फलक पर चार सजीव सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए चतुर्दिक मुंह किये बैठे हैं। इस स्तम्भ का आकार भारा घण्टे के आकार का है जिस पर कमल की पंखुड़ियों का आकार उत्कीर्ण है। सम्भवतः सम्राट अशोक की चतुर्दिक शक्ति के स्वरूप में सिंह है। सिंहों के मस्तक पर बत्तीस तीलियों वाला स्थापित महाचक्र शक्ति के ऊपर धर्म विजय का प्रतीक है।
अशोक स्तम्भ के साथ- साथ स्तूप परंपरा को भी प्रोत्साहन दिया। स्तूप निर्माण की परंपरा तो बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद से ही प्रारंभ हेा गयी थी। उसकी अस्थियों को आठ भाग में बांटकर उन पर समाधियों का निर्माण किया गया था। बौद्ध अनुश्रुतियों  के अनुसार अशोक ने चैरासी हजार स्तम्भ बनाये थे। इन अशोक राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष सुदामा गुफा 16वें वर्ष कर्ण चैपड़ नामक गुफा का निर्माण कराकर आजीवन भिक्षुओं को दान में दी थी।

कुशल विदेशी नीति निर्माता -  अशोक की विदेश नीति सहअस्तित्व व शांति और मित्रता की नीति थी। वह पड़ोसी राज्यों से सदैव मित्रता के संबंध बनाये रहा। उसके राज्य में लोक कल्याणकारी कार्य चालू किये तथा उनको इन कार्योें के चालू करने में सहायता दी। उसने दक्षिण के सीमावर्ती राज्यों के साथ पूर्ण सह अस्तित्व की नीति का अनुकरण किया। उनके हृदय में उसके प्रति कोई भ्रम या भय न हो, इसके लिए वह अपने अधिकारियों को आदेश देता है कि पड़ोसी राज्य को मेरी इस इच्छा से अवगत कराओ की वह  मुझ पर विश्वास करे, मुझसे डरे नहीं। मैं सदैव उनके सुख व शांति की कामना करता हूं।8 उसके समकालीन विदेश राजा उसके मित्र थे तथा उसका सम्मान करते थे। अशोक के जो दूत व प्रचारक विदेशों में गये उससे संस्कृति व व्यापार का आदान- प्रदान हुआ और उसके दूरगामी शुभ परिणाम हुए। भारतीय संस्कृति व धर्म समस्त यूरोप में पहुंचे।

बौद्ध धर्म का उन्नायक -  अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया  था और व्यक्तिगत जीवन में उसने उस धर्म का निष्ठापूर्वक पालन किया। उसने अपने दो रूपों को सदैव पृथक् रखा-  1. राजा के रूप में जनता के संबंध  2. बौद्ध के रूप में बौद्ध संघ में संबंध। एक निष्ठावान बौद्ध उपासक के रूप में उसने बौद्ध धर्म को विश्वधर्म बना दिया। लंका में तो उसने स्वयं अपने पुत्र और पुत्री को ही भेजा था। उसने धर्म का प्रचार का अभाव लंका पूर्वी द्वीप समूह, ब्रह्मा, चीन, मध्य एशिया तथा पश्चिम में भूमध्यसागरीय प्रदेशों तक हुआ और वहां बौद्ध धर्म के पैर जमंे ‘‘एक प्रसिद्ध विद्वान् पारमेसन आर्सेल के अनुसार’’  अपने साम्राज्य की सीमा से पार भी उसने उस उद्देश्य की पूर्ति की जो कुछ धर्मों का स्वप्न रहा है। अर्थात् अपने विश्वव्यापी व्यवस्था कायम कर सारी मानवता को शांति का संदेश दिया।9
         अशोक की नीति और उसके चरित्र की समीक्षा करते हुए प्रख्यात इतिहासकार राजबली पाण्डेय ने लिखा है अशोक अपनी युवावस्था में बहुतेरे प्राचीन भारतीय राजाओं की तरह सेना, शिकार, युद्ध और आमोद- प्रमोद में रस लेने वाला था। वह सम्भवतः स्वभाव से कठोर और प्रचण्ड भी था, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह एतुबहुसफल सेना का संगठन करने वाला और सेनानायक था। कश्मीर और कलिंग विजय इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। कलिंग युद्ध के पश्चात् जब अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया तब भी उसने अदम्य उत्साह, अथक् पराक्रम, अध्यवसाय और कार्यक्षमता का परिचय दिया। एक विशाल पैमाने पर धर्म संगठन और धर्म प्रचार की योजना संसार के इतिहास में एक अभिनव किन्तु सफल प्रयास था। इसके साथ राजनीतिक, आर्थिक और सभी प्रकार के स्वार्थों का सम्पूर्ण त्याग और सर्वलोकहित के आदर्श के आगे अपने जीवन का सम्पूर्ण समर्पण संसार के इतिहास के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए लिखा है -  इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, संत- महात्माओं आदि के बीच अशोक का नाम प्रकाशमान है और यह प्रकाश में प्रायः एकाकी तारा की तरह चमकता है।
अशोक की धर्म नीति और सदाचार के फलस्वरूप सारे देश में और इसके बाहर भी धर्म नीति और सदाचार का प्रचार हुआ, संस्कृति और कला फैली, लोकधर्म और लोकसंस्कृति के माध्यम रूप में पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रचार हुआ, अन्तर्राष्ट्रीयता और मानवतावादी की वृद्धि हुई आदि वास्तव में अशोक की यह शानदार सफलता थी। परन्तु ठीक उस समय जबकि कलिंग विजय के बाद अशोक अपनी सैनिक और राजनीतिक शक्ति की चरम सीमा पर था। उसकी दिग्विजय की नीति के परित्याग भेरीघोष में परिवर्तन, राज्य के अधिकारियों को धर्म प्रचारक के लगाने मृृगया और समाजोत्सवों का बंद करने, सीमान्त की असभ्य और लड़ाकू जातियों के साथ  अत्यन्त उदार नीति बरतने, मौर्य की दिग्विजयिनी सेना के प्रति उपेक्षा भाव उसके सैनिकों को अभ्यस्त और युद्ध में अनुभवहीन बनाने तथा अस्त्र- शस्त्र और दूसरी सामग्रियों में जंग लगा देने की नीति पर प्राचीन भारत के दिग्विजयी सम्राटों की आत्मायें अवश्य आश्चर्यचकित और सशंकित हुई होगी।

सन्दर्भ सूची 

1. वी0डी0 महाजन- प्राचीन भारत का इतिहास पृ0 296
2. डववामतरप त्ण्ज्ञण् ।ेीवां च्ण् 1
3. प्राचीन भारत का नवीन मूल्यांकन- वातात्मज मिश्र पृ0 166
4. वातात्मज मिश्र- प्राचीन भारत का नवीन मूल्यांकन पृ0 166
5. अशोक (हिन्दी)
6. ।दंहम व िप्उचमतपंस न्दपज च्ण्83  ...
7. प्राचीन भारत का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास - विमल पाण्डेय भाग-1 पृ0 315
8. पृथक् शिला प्रज्ञापन - 2
9. डाॅ0 महाजन, प्राचीन भारत के इतिहास से उद्धृत।





                             उपसंहार -  

  अशोक के व्यक्तित्व का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि अशोक समा्रट था। जिसका साम्राज्य विस्तार न केवल भारत में ही रहा वरन् विदेशों में भी अपने साम्राज्य विस्तार के संबंधों को बनाये रखा था। अशोक के अभिलेखों से स्पष्ट है कि समा्रट के रूप में अशोक वैसा सरल बौद्ध धर्म अपना लेने वाला बौद्ध नहीं था जैसा बौद्ध स्रोत हमें विश्वास दिलाना चाहते हैं। निश्चय ही अपने राज्यकाल के पूर्वार्द्ध में उसने सहिष्णुता और मानवता पर जोर दिया। इसमें और बौद्ध धर्म में किसी प्रकार का विरोध नहीं था। लेकिन यह निष्पक्ष दृष्टिकोण से संबंधित अशोक की अपनी निजी अभिव्यक्ति थी। इसे वह अपनी प्रजा में फैलाना चाहता था।
धम्म के अध्ययन से स्पष्ट है कि अपने विचारों के लिये अशोक ने जो उपाय अपनाया वह सामाजिक, धार्मिक मार्ग था। उसके बौद्ध धर्म के साथ नये विचार संबद्ध के विरुद्ध नहीं था। लेकिन इसका दूसरा कारण यह भी था कि वह बौद्ध धर्मानुयायी था और धर्महीन ‘विचारों के विरुद्ध’ नहीं था। लेकिन इसका दूसरा कारण यह भी था कि राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन के युग में अपेक्षाकृत एक नये धर्म को समकालीन विचारों के अनुकूल बनाने में प्रत्यक्ष लाभ था। इस अंतिम उपाय को बहुत प्रभावशाली ढंग से अन्य सम्राटों ने भी अपनाया। यह उल्लेखनीय है कि अशोक ने अपनी सारी प्रजा से सामाजिक बौद्ध धर्मान्तरण की मांग नहीं की। बल्कि सामाजिक आचरण में मानवतावाद के सचेत प्रयोग पर जोर दिया। इस प्रकार उसकी अपील संकीर्ण धार्मिक वृत्ति की न होकर व्यापक और अव्यवहित सामाजिक दायित्व की भावना से भी।
धम्म के विकास को उस समय की राजनीतिक पद्धति के संदर्भ में भी देखना जरुरी था। भारत तीसरी शताब्दी ई0पू0 में एक राष्ट्रीय इकाई नहीं था लेकिन राजनीतिक दृष्टि से यह केन्द्रीकृत राज्यतंत्र द्वारा शासित था और शासन व्यवस्था केन्द्रीकृत नियंत्रण पर आधारित थी। इस राजनीतिक पद्धति की सफलता के लिए उस युग में बहुसांस्कृतिक वातावरण में कुछ राष्ट्रीय तत्व का होना आवश्यक था। धम्म निश्चय ही एक ऐसा मार्ग था जो सांस्कृतिक विकास के लिए किसी भी स्तर पर स्वीकार किया जा सकता था और उसका अंगीकरण देश भर में एकता ला सकता था। इस दृष्टि से 18 सदियों के बाद अकबर के प्रयत्न की तुलना अशोक की चेष्टाओं से की जा सकती है।
अशोक की निजी दुर्बलताएँ जो उसके अंतिम दिनों में प्रकट रही कुछ भी रही हो, लेकिन जब हम विचार करते हैं कि उसने कितने साहस से धम्म की व्यवस्था और उसका प्रचार किया, विशेषकर तीसरी शताब्दी ई0पू0 के जटिल संास्कृतिक वातावरण में तो उसके प्रति हमारी सराहना और अधिक हो जाती है। अशोक ने इनमें एक अन्य और शायद सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व जोड़़ दिया है और छठे शिलालेख में वह अपने साथी मानव के प्रति उत्तरदायित्व की भावना व्यक्त करता
           उपर्युक्त विवेचनों से स्पष्ट होता है कि अशोक की महानता इसमें थी कि अपने उद्योग और परिस्थितियों से सम्पन्न होने के कारण वह अपनी संस्कृति और तेजी से बदलती हुई उसकी आकांक्षाओं को समझने में समर्थ था। इस विशेषता के साथ- साथ उसमें एक असाधारण आदर्शवाद भी था। इन दोनांे ने उसे वह साहस दिया जो तत्कालीन परिस्थितियों के साथ प्रयोग करने और असाधारण समाधान खोजने के लिए आवश्यक था।
सन्दर्भ सूची
1. सत्यकेतु विद्यालंकार, मौर्य साम्राज्य का इतिहास प्रकाशन श्री सरस्वती सदन, नई दिल्ली।
2. डाॅ0 ए0के0 मित्तल, भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास साहित्य भवन ,पब्लिकेशन्स, आगरा।
3. पी0एल0 गौतम, प्राचीन भारत का इतिहास एवं संस्कृति, एम सी ग्रो एच डब्ल्यू एज्यूकेशन (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, न्यू दिल्ली।
4. वातात्मज मिश्र, प्राचीन भारत का नवीन मूल्यांकन,  टाटा एम सी ग्रो एच डब्ल्यू पब्लिशिंग कम्पनी लिमिटेड - न्यू दिल्ली
5. के0ए0 नीलकण्ठ शास्त्री, नंद मौर्य युगीन भारत, नरेन्द्र प्रकाश जैन, मोती लाल बनारसी दास, बंगलो रोड़ दिल्ली (110007)
6. द्विजेन्द्र नारायण झा कृष्ण मोहन श्रीमाली- प्राचीन भारत का इतिहास हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय (दिल्ली विश्वविद्यालय)
7. डाॅ0 रमाशंकर त्रिपाठी- प्राचीन भारत का इतिहास, मोती लाल बनारसी दास वाराणसी, पुणे, पटना।
8. जी0पी0 सिंहल- प्राचीन भारत रिसर्च पब्लिकेशन्स नई दिल्ली जयपुर
9. डाॅ0 राजबली पाण्डेय- प्राचीन भारत प्रकाशन- विश्वविद्यालय प्रकाशन, चैक
10. डाॅ0 ए0के0 मित्तल- भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास , प्रकाशन- साहित्य भवन पब्लिकेशन्स हाॅस्पिटल रोड़, आगरा 282003
11. वी डी महाजन- प्राचीन भारत का इतिहास एस चन्द्र एण्ड कम्पनी लि0 मुख्य कार्यालयः 736/ रामनगर नई दिल्ली 110055


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2 Comments

  1. अनेक संदर्भ व प्रसंग तथ्यपरक नहीं हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र किसके द्वारा व कब लिखा गया,सही सूचना व विवरण नहीं है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र संस्कृत भाषा में है, जबकि संस्कृत भाषा का लेखन साहित्य चन्द्गुप्त विक्रमादित्य के कार्यकाल से मिलता है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध भाषा शास्त्री डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, प्रवक्ता सासाराम, बिहार ने अपनी पुस्तक-भाषा, साहित्य और इतिहास का पुनर्पाठ में विवेचन किया है।

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