प्रस्तावना-
मानव चेतना के विकास मे कर्म योग की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कर्मयोग समस्त विष्व का कल्याणकारी परम पावन मार्ग है।कर्मयोग में कर्मयोगी अपने समस्त कर्मों और फल को भगवान के श्रीचरणों में अर्पण कर देता है। ईष्वर में निश्ठाा रखकर आसक्ति को दूर करके सफलता या असफलता समान रूप रहकर कर्म करते रहना कर्मयोग कहलाता है।
ग्ीता मे भगवान श्री कृष्ण कहते है -
‘‘नहि कष्चित क्षणमपि जातुतिष्ठत्यकर्म कृत्ं !
कार्यते ह्यवषः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।’’ 3/5
अर्थात - कोइै भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नही रह सकता । क्योंकि समस्त मनुश्य समुदाय प्रकृति जनित गुणे के द्वारा कर्म करन ेके लिए बाध्य किया जाता है। इससे स्पश्ट हो जाता है की मनुश्य जीवन में कर्म एव फल तथा उससे बनने वाले संस्कार से मुक्ति के लिए कर्मयोग का अभ्यास कितना आवष्यक व अनिवार्य है।
कर्मयोग की पावन पुण्य परम्परा वेदों, पुराणें ,गीता से होकर महान कर्मयोगियोें स्वामी विवेकानन्द , स्वामी षिवानंद ,, श्री अरविंद , आचार्य श्रीराम ष्षर्मा आदि से प्रकाषित हुई है। इन सभी ने अपने जीवन में पीडित मानवता की सेवा करते हुए अपने स्वधर्म का पालन किये यही कर्मयोग है।
ग्ीता मे भगवान श्री कृष्ण कहते है -
‘‘नहि कष्चित क्षणमपि जातुतिष्ठत्यकर्म कृत्ं !
कार्यते ह्यवषः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।’’ 3/5
अर्थात - कोइै भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नही रह सकता । क्योंकि समस्त मनुश्य समुदाय प्रकृति जनित गुणे के द्वारा कर्म करन ेके लिए बाध्य किया जाता है। इससे स्पश्ट हो जाता है की मनुश्य जीवन में कर्म एव फल तथा उससे बनने वाले संस्कार से मुक्ति के लिए कर्मयोग का अभ्यास कितना आवष्यक व अनिवार्य है।
कर्मयोग की पावन पुण्य परम्परा वेदों, पुराणें ,गीता से होकर महान कर्मयोगियोें स्वामी विवेकानन्द , स्वामी षिवानंद ,, श्री अरविंद , आचार्य श्रीराम ष्षर्मा आदि से प्रकाषित हुई है। इन सभी ने अपने जीवन में पीडित मानवता की सेवा करते हुए अपने स्वधर्म का पालन किये यही कर्मयोग है।
कर्मयोग का अर्थ
कर्म शब्द संस्कृत के ‘कृ’ धातु में ‘अन्’ प्रत्यय लगककर बना है , जिसका अर्थ है - क्रिया , व्यापार , हलचल , प्रारब्ध तथा भाग्य आदि।
सभी क्रियायें कर्म नही कहलाती हैं, जिनके साथ हमारा भाव और संकल्प , इच्छााएं और भावनाएॅ जुडे होते है वे ही कर्म कहलाती है।
परिभाशा -
श्रीमदभग्वद्गीता 2/50 - बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुश्कृते ।
तस्मातद्योगाय युज्यसव योगः कर्मसु कौशलम्।
अर्थात - समबुद्धि युक्त पुरूश पुण्य और पाप दोनो को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग मेेंल ग जा , यह समत्व रूप् योग ही कर्मो की कुषलता है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
पं श्रीराम शर्मा - ‘‘ जिसमे स्वार्थ और परमार्थ , लोक और परलोक संसार की सेवा आत्म कल्याण दोनो का समावेष समान रूप् से होता है तथा अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विशय जन्य भावनाओं के प्रति निरासक्ति ही कर्मयोग है।’’
‘‘ कुषलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड कर कर्म किया जाए और उसके फल में निर्लिप्त निस्पृह अथवा अनासक्त रहा जाए , जिससे न तो सफलता का अभिमान हो न असफलता में निराषा अथवा निरूत्साह ।’’
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - ‘‘ स्वार्थ से उपर उठकर कुछ ष्षस्त्र सम्मत एवं कुछ नैतिक दृश्टि से ष्षुभ कर्मो में मन को निरंतर नियुक्त किये रहना कर्मयोग है।’’
स्वामी आत्माानन्द -‘‘ जब कर्म अपने लिये न करके दूसरो के हित के किया जाता है, त बवह कर्मयोग कहलाता है।
सभी क्रियायें कर्म नही कहलाती हैं, जिनके साथ हमारा भाव और संकल्प , इच्छााएं और भावनाएॅ जुडे होते है वे ही कर्म कहलाती है।
परिभाशा -
श्रीमदभग्वद्गीता 2/50 - बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुश्कृते ।
तस्मातद्योगाय युज्यसव योगः कर्मसु कौशलम्।
अर्थात - समबुद्धि युक्त पुरूश पुण्य और पाप दोनो को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग मेेंल ग जा , यह समत्व रूप् योग ही कर्मो की कुषलता है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
पं श्रीराम शर्मा - ‘‘ जिसमे स्वार्थ और परमार्थ , लोक और परलोक संसार की सेवा आत्म कल्याण दोनो का समावेष समान रूप् से होता है तथा अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विशय जन्य भावनाओं के प्रति निरासक्ति ही कर्मयोग है।’’
‘‘ कुषलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड कर कर्म किया जाए और उसके फल में निर्लिप्त निस्पृह अथवा अनासक्त रहा जाए , जिससे न तो सफलता का अभिमान हो न असफलता में निराषा अथवा निरूत्साह ।’’
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - ‘‘ स्वार्थ से उपर उठकर कुछ ष्षस्त्र सम्मत एवं कुछ नैतिक दृश्टि से ष्षुभ कर्मो में मन को निरंतर नियुक्त किये रहना कर्मयोग है।’’
स्वामी आत्माानन्द -‘‘ जब कर्म अपने लिये न करके दूसरो के हित के किया जाता है, त बवह कर्मयोग कहलाता है।
’’शकराचार्य के अनुसार -‘‘कर्मयोग ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र हेै वह परमार्थ की प्राप्त का अलग से स्वतंत्र मार्ग नही है।’’
डाॅ. सर्वपल्ली राधकृश्णन के अनुसार - ‘‘ कर्मयोग जीवन के लक्ष्य तक पहुचने की एक वैकल्पिक पद्धति है औश्र इससे अन्तज्र्ञान होता है।’’
डाॅ. सर्वपल्ली राधकृश्णन के अनुसार - ‘‘ कर्मयोग जीवन के लक्ष्य तक पहुचने की एक वैकल्पिक पद्धति है औश्र इससे अन्तज्र्ञान होता है।’’