जब न ईश्वर है, न कर्मफल — तब क्या है?
🕉️ भूमिका
हमारी सभ्यता ने हजारों वर्षों से यह विश्वास बनाए रखा है कि इस संसार के पीछे एक ईश्वर है — जो सबका न्याय करता है, सबका रक्षक है, और सब कुछ “कर्मफल” के नियम से संचालित होता है।
परंतु जब हम जीवन के यथार्थ को देखते हैं —
तो यह विश्वास धीरे-धीरे टूटने लगता है।
सज्जन लोग संघर्ष में डूबे रहते हैं,
दुष्ट और चालाक लोग आगे बढ़ जाते हैं,
निष्पाप लोग दुर्घटनाओं में मर जाते हैं,
और पापी लोग सत्ता और संपत्ति में फलते-फूलते हैं।
तब मन कहता है —
“यदि ईश्वर है, तो वह पक्षपाती है; और यदि नहीं है, तो कर्मफल भी केवल एक कल्पना है।”
🌿 1. कर्मफल की कल्पना — न्याय की चाह से जन्मा विचार
कर्मफल का सिद्धांत मानव मन की सबसे पुरानी सांत्वना है।
यह हमें यह भरोसा देता है कि संसार में कोई न कोई “अदृश्य न्याय” काम कर रहा है।
कि अगर आज अन्याय हुआ, तो कल उसका हिसाब अवश्य होगा।
परंतु जब अनुभव बार-बार इसके विपरीत प्रमाण देता है,
तो यह विचार टूट जाता है।
क्योंकि वास्तविकता में प्रकृति नैतिक नहीं है —
वह केवल तटस्थ है।
सूरज सबको समान रूप से रोशनी देता है,
पर जो छाया में खड़ा है, वह अंधेरे में रहेगा।
👉 कर्मफल का विचार हमें नैतिक बनाता है,
पर यह कोई वैज्ञानिक नियम नहीं,
बल्कि एक मानसिक अनुशासन है —
जो समाज को डर और उम्मीद से बाँधे रखता है।
🔥 2. ईश्वर — व्यवस्था की कल्पना या अस्तित्व की वास्तविकता?
ईश्वर की धारणा भी इसी नैतिक आवश्यकता से जन्मी।
मनुष्य एक असुरक्षित प्राणी है;
वह मृत्यु, अन्याय और अराजकता से भयभीत है।
इसलिए उसने एक ऐसी सत्ता की कल्पना की —
जो सब कुछ देखती है, सब जानती है, और सबका निर्णय करती है।
परंतु यदि वास्तव में कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर है,
तो वह इतने निर्दोष जीवनों को दुःख में क्यों झोंक देता है?
क्यों कोई बच्चा रोग से मरता है,
क्यों कोई अत्याचारी शांति से जीता है?
इन प्रश्नों के उत्तर धर्म नहीं देता — केवल सांत्वना देता है।
और जब मनुष्य सांत्वना से आगे बढ़ता है,
तब वह देखता है कि
ईश्वर शायद “व्यक्ति” नहीं, बल्कि केवल “विचार” है।
🌸 3. अगर न ईश्वर है, न कर्मफल — तो क्या शून्यता ही सत्य है?
बहुतों को लगता है कि अगर कोई परम सत्ता नहीं,
तो जीवन अर्थहीन है।
पर वास्तव में यहीं से सच्चे अर्थ की शुरुआत होती है।
क्योंकि जब कोई ऊपर से नियंत्रण नहीं करता,
तो फिर जीवन की पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर आ जाती है।
अब तुम न पुण्य के लोभ में अच्छे बनते हो,
न पाप के भय से बुरे काम से रुकते हो —
बल्कि इसलिए सज्जन होते हो,
क्योंकि सज्जनता ही तुम्हारी सहजता है।
👉 जब ईश्वर नहीं होता,
तो “नैतिकता” भय से नहीं, स्वतंत्रता से जन्म लेती है।
🌺 4. अस्तित्व का सत्य — न न्याय, न अन्याय
बुद्ध ने कहा था —
“इस संसार में कोई न्याय नहीं; केवल कारण और परिणाम हैं।”
अर्थात्, जो कुछ भी घटता है,
वह किसी नैतिक निर्णय से नहीं,
बल्कि परिस्थितियों, कारणों और परिणामों के प्रवाह से होता है।
यह प्रवाह न पक्षपाती है, न दयालु —
बस स्वभावतः चल रहा है।
बिजली का झटका गरीब को भी लगता है और अमीर को भी।
नदी का प्रवाह किसी की भक्ति या अधर्म से नहीं बदलता।
प्रकृति का नियम है — जो जैसा समझेगा, वैसा पाएगा।
न इसमें ईश्वर की कृपा है, न शाप।
🌞 5. अर्थहीनता में अर्थ की खोज
जब मनुष्य यह स्वीकार करता है कि कोई ईश्वर नहीं,
तो शुरुआत में एक गहरा खालीपन आता है।
पर धीरे-धीरे वही खालीपन सच्ची स्वतंत्रता बन जाता है।
अब किसी “ऊपरवाले” को खुश करने की ज़रूरत नहीं,
अब केवल स्वयं के प्रति सच्चे रहने की आवश्यकता है।
यह स्थिति भयावह नहीं, बल्कि परिपक्वता की अवस्था है —
जहाँ मनुष्य स्वयं “ईश्वर” का स्थान ले लेता है।
वह स्वयं अपने कर्मों का निर्णायक बनता है,
स्वयं अपने विवेक का पालन करता है,
और दूसरों के लिए वही बनता है
जो पहले वह “ईश्वर” से अपेक्षा करता था।
🌻 6. निष्कर्ष — जब ईश्वर नहीं, तब भी जीवन है
शायद वास्तव में कोई कर्मफल विधान नहीं,
शायद कोई ईश्वर नहीं —
या यदि है भी, तो वह मानव की परिभाषा से परे है।
पर जीवन फिर भी चल रहा है,
सूरज फिर भी उगता है,
मनुष्य फिर भी प्रेम करता है, रचता है, सपने देखता है।
इसलिए जीवन का अर्थ ईश्वर में नहीं, स्वयं जीवन में है।
न्याय की खोज बाहर नहीं,
बल्कि हमारे अपने विवेक और संवेदना में है।
✨ अंतिम सार
“शायद कोई ईश्वर नहीं।
शायद कोई कर्मफल नहीं।
पर अगर तुममें करुणा है, विवेक है, प्रेम है —
तो तुम स्वयं ईश्वर हो, और तुम्हारा कर्म ही विधान है।”